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समय देशना - हिन्दी जाति पर्याय का अभाव हुआ है, लेकिन जो पर्याय में परमाणु हैं, वे विनाश को प्राप्त नहीं हुए हैं, यह भी ध्यान रखना । जो सिद्धरूप परिवर्तन हो चुका है। जो संसार की पर्याय थी, वे हमारी पुद्गल सापेक्ष थी । और जो मेरी मनुष्य पर्याय है, वह पुद्गल - सापेक्ष है। ये परमाणु अपने रूप में, भिन्न रूप में चले गये। जो मैं आज पुद्गल वर्गणाओं को भोग रहा हूँ, इन वर्गणाओं को कोई दूसरा भोगेगा, मेरी आत्मा शुद्ध हो जायेगी । और जो हमारी आत्मा में भाव अवस्था थी, उस भाव अवस्था का भी अभाव 'जायेगा । संसारी पर्याय जो भावरूप अनंत हुई है, उन संसारी पर्यायों का भी अभाव हो गया सिद्ध बनने पर । क्यों हो गया ? क्योंकि शुद्ध पर्याय में अशुद्ध पर्याय न द्रव्य रूप रहेगी, न भावरूप रहेगी, फिर ज्ञान कैसा ?
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वे जो केवली भगवान जान रहे हैं, कि ये पूर्व में क्या था, कैसे जानेंगे ? उनके ज्ञान का इतना विराटपना है। अभावरूप पर्याय अभावरूप में दिख रही है, सद्भावरूप पर्याय सद्भावरूप में दिख रही है, और होनेवाली पर्याय उनके ज्ञान में झलक रही है । परन्तु माना कि आज हम पुरुष हैं और पूर्व की कोई देव पर्याय सर्वज्ञ के ज्ञान में झलके पर्याय ज्ञान रूप मात्र झलकेगी। उस भूत पर्याय का वर्तमान में अभाव है । केवलज्ञान में भूत पर्याय अभावरूप ही झलकती है। उनके ज्ञान में ऐसा भी था, जैसे कि एक मटका आपने सुबह देखा, और शाम को किसी ने उसे तोड़ दिया । उसकी द्रव्य पर्याय नष्ट हो गई, आकार नष्ट हो गया । वह घट नहीं है, पर आप देख चुके थे सुबह, तो आपके ज्ञान में दिख रहा है कि वह मिट्टी घटाकार थी । प्रागभाव प्रध्वंसाभाव । तो प्रध्वंसाभाव हो गया। सिद्धों में प्रागभाव क्या था ? सिद्धों में प्राग्भाव बनाये बिना सिद्ध बना ही नहीं सकते ।
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कार्यद्रव्यमनादि स्यात्प्रागभावस्य निह्नवे ।
प्रध्वंसस्य च धर्मस्य प्रच्यवेऽनन्ततां ब्रजेत् ||१०|| आप्तमीमांसा ॥ प्राग्भाव नहीं बनाओगे, तो कार्य अनादिसिद्ध हो जायेगा । आपमें सिद्धपने का परिपूर्ण अभाव है यदि नहीं मानोगे तो कार्यद्रव्य मनादिस्यात् । सिद्ध कार्य है, वह अनादि - सिद्ध हो जायेगा। यदि आपकी इस पर्याय में देवपर्याय का प्राग्भाव नहीं मानोगे, तो आप अनादि से देव हो जायेंगे ।
अब चलो अर्थ पर्याय में । द्रव्य व्यंजन पर्याय, गुण व्यंजन पर्याय, स्वभाव व्यञ्जन पर्याय, विभाव व्यञ्जन पर्याय |
मैं जो जीवद्रव्य हूँ, व्यञ्जन पर्याय में । मनुष्य आदि हूँ विभाव व्यञ्जन पर्याय । तो विभाव-गुणव्यञ्जन-पर्याय मति श्रुत ज्ञान है । स्वभाव गुण व्यञ्जन पर्याय और विभाव-गुण- व्यञ्जन - पर्याय एकसाथ नहीं रहेंगे । विभाव-गुण- व्यञ्जन - पर्याय में स्वभाव - गुण - व्यञ्जन - पर्याय नहीं रहेगी । स्वभाव-गुणव्यञ्जन-पर्याय में विभाव-गुण-व्यञ्जन - पर्याय नहीं रहेगी । भावों की पर्याय तो होती है, पर परभाव पर्याय नहीं होती है । पर्याय में इन्द्रियाँ हैं, पर इन्द्रियों की कोई पर्याय नहीं होती। जो भावइन्द्रिय है, द्रव्यइन्द्रिय है, वह जीव का विभाव भाव है । भाव इन्द्रिय आत्मा का संचित स्वभाव है, द्रव्य इन्द्रिय तो आत्मा का स्वभाव है ही नहीं। जब तत्त्वार्थसूत्र मोक्ष की बात करेगा, तो भव्यत्वभाव, का भी अभाव होता है, औदयिक भाव का भी अभाव हो जाता है, मात्र जीवत्वभाव शेष रहता है। हम व्यवहार में बोल देते हैं, भव्यत्व भाव का अभाव सिद्धत्व भाव । पर ध्रुव सत्य यह है कि भव्य उसे कहते हैं, जो सिद्ध बनने की क्षमता / योग्यता रखता है, वह रत्नत्रय को पालने की योग्यता रखता है । जिस जीव ने रत्नत्रय का पालन कर लिया, निर्वाण को प्राप्त हो गया, भव्यत्व भाव का अभाव हो गया। अब सिद्धत्व भाव आ गया । यहाँ सिद्धत्व भाव से जीवभाव लेना । अब
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