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समय देशना - हिन्दी
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ज्ञानी ! प्रथम चरण में भावुकता थी, इसलिए मृदुता आ गई। कुछ काल का भी दोष है । कुछ हमने वैराग्य के साधनों को कम समय दिया, और राग के साधनों को ज्यादा समय दिया। रात्रिभोजन का त्याग है आपका, और आप किसी रिश्तेदार के घर रात्रि में जाना । कब? जब वह भोजन कर रहा हो। वह तुरन्त अपनी थाली देने लगेंगे, आओ, आओ । भोजन कर लो। वह कहेगा, मेरा तो तीस साल से त्याग है । 'अरे ! तो उसे उसके प्रति सम्मान, और अपने प्रति ग्लानि होगी। वह कहेगा, अच्छा, तो दूध पानी चलेगा। सम्मान बढ़ रहा है। एक रात्रिभोजन के त्याग से पूज्यता बढ़ गई, सम्मान बढ़ गया। अब यहाँ संभलने की आवश्यकता थी । त्याग करते ही पुण्य बढ़ता है। वैराग्य होते ही पुण्य बढ़ता है। मिलता क्या है ? जिसके पास जो हो । भेंट क्या देगा ? राग । जैसे-ही त्यागी बना, रागियों द्वारा सम्मान बढ़ा। इधर त्यागी सम्मान में डूब गया । ज्ञानी ! वैराग्य विलीन हो गया । त्याग होता है साधना के लिए, पर वह उसमें सम्मान मान लेते हैं, समझ नहीं पाते। मैंने किसी को दो प्रतिमा दे दी, तो वह अपने को बड़ा मानने लगा, आगे बैठेगा। पहले अभिषेक करेगा, प्रवचन में लेट आये, फिर भी आगे बैठेगा, आपने अपने चारित्र को पर्याय के सम्मान में लगा डाला । जो आत्मा के सम्मान का विषय था, उसे पर्याय के सम्मान में लगा दिया। इस कारण चर्या में मृदुता आ रही हैं। त्यागी सर्वत्र पूज्य होते है। मार्ग कभी चोर होता नहीं ।
पंथे मुस्संतं पस्सिदूण लोगा भणंति ववहारी ।
मुस्सदि एसो पंथो ण य पंथो मुस्सदे कोई ॥५८॥ समयसार
मार्ग तो चोर होता नहीं, पर मार्ग व्यर्थ में बदनाम होता है। चोर तो व्यक्ति होते है । चुराते वे हैं, और बदनाम होता है मार्ग। भैया ! उस मार्ग पर मत जाना, मार्ग चोर है। त्याग कभी अशुभ होता नहीं, त्याग के मार्ग पर आई जो कषाय है, वह डाका डाल रहीं हैं । त्यागी का सम्मान बराबर रखना । मार्ग पर सज्जन कितने निकलते हैं, दुर्जन कितने निकलते हैं ? विश्वास रखना, उन दुर्जनों की भीड़ को देखकर हम सभी को दुर्जन व मिथ्यादृष्टि नहीं कहते। "दोष वादे च मौनं" अवगुणों को ज्यादा निहारोगे, तो आप मालूम कहाँ पहुँच जायेंगे? अश्रद्धा पर पहुँच जायेंगे । अवगुणों को नहीं निहारना अपने अवगुणों को निहारो । पर के अवगुण निहारोगे, तो पर में दोष दिखेगा। अवगुण निहारेंगे निज में तो, गुण दिखेंगे पर में। सही है न ? पर वैराग्य में जो पुण्य बढ़ता है उसको संभालना आवश्यक है। दस पूर्वधारी ( विद्यानुवाद पूर्व) जैसे ही योगी पढ़ता है, - विद्या कहती है भो स्वामी ! आज्ञां देहि, मैं क्या करूँ ? ध्यान दो, चारित्र को पचाना बहुत कठिन है, साधना को पचाना कठिन है । यह सब रहस्यमयी बातें बता रहा हूँ । साधना को पचाना भी बहुत कठिन है, जब साधना में भर जाता है न तो कषाय भड़कती है। ध्यान रखना, व्रती - त्यागी ज्यादा गुस्सा करते मिलेंगे । समझो, ऐसा क्या करते, गुस्सा का कारण क्या है ? ये साधना को पचा नहीं पा रहे। एक बार हमने आठ दिन का मौन लिया, तो हमारे साथ एक साधक और थे, उन्होंने भी कहा कि मुझे भी करना है, मैंने कहा, कुछ सीमा कर लो, तुम पाल नहीं पाओगे। पर वह नहीं माने। ढक्कन ढँका हो, नीचे चूल्हा जल रहा हो, तो भाप कितनी बनती है ? आप ढक्कन पर पत्थर और रख जाते हो। और ढक्कन था पतला, आठ दिन का मौन, उबाल आ गया, सातवें दिन तो फूट ही गया । ज्ञानी ! हमने कहा था आपसे कि साधना पचाना कठिन है, मौन के समय दुनियाँ के लोग इधर-उधर का सुनाते हैं, उसे निगलना सीखना । शान्त रहो। जो साधना को नहीं पचा पाता, उसकी विभाव में परिणति होती है। उपवास हो, उस दिन सम्भल कर रहना पड़ता है । विशेष जाप करे, माला करे । माला कम फेरो, यदि पचा नहीं पाते तो । अन्यथा तीव्र गुस्सा आती है माला फेरनेवाले
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