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समय देशना - हिन्दी
२६८ हैं कि पहले समझो, जानो, फिर आगे चलना। पहले वाला आसन्न भव्य, सूत्ररुचिवाला था। ये विस्ताररुचि वाले है कि देख लो, समझ लो। एक बात ध्यान रखना, जिस दिन वैराग्य हो, उसी दिन दीक्षा ले लेना चाहिए। जैसे- तुम ज्यादा सीख गये, वैसे ही वैराग्य से वैराग्य होने लगता है। ज्यादा जानने से ऐसा होता है।
तत्त्व उपदेश तो वैराग्य ही का होना चाहिए, पर आचार्य को दीक्षा देखकर ही देना चाहिए। दीक्षा तो हम दे देंगे, पर निभाना समाज को पड़ेगा। तुम खोटे निकल गये तो जीवन भर समाज को झेलना पड़ता है। अन्दर का विषय है, आप मानिये। इसलिए सभी से कहना है कि कम साधु हों, पर साधुमार्ग पर अश्रद्धा न हो। सेन्ट वाला निकल जाता है तो पूरी गली को सुगन्धित कर देता है । साधु को देखकर आनंद आना चाहिए। यह नहीं आना चाहिए कि चार महीने में कितने दिन बचे, कब जायेंगे।
संवत्ति. प्रतीति. ख्याति. निश्चय सम्यक्त्व है। बिना वीतराग चारित्र के वीतराग सम्यक्त्व नहीं होता है। अभेद उपचार से सम्यक्त्व का विषय होने से व्यवहार सम्यक् होता है। निश्चय से स्वकीय शुद्धात्म परिणाम ही सम्यक्त्व है। ऐसा जानना। || भगवान् महावीर स्वामी की जय ।।
qqq आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने भूतार्थ तत्त्व का प्रतिपादन किया, सत्यार्थ वस्तु के कथन का स्वरूप क्या है और लोक स्वरूप क्या मानता है ? जहाँ आचार्य अमृतचन्द्रस्वामी ने अनेकान्तमय मूर्ति की वंदना की, वहीं लोगों ने सरस्वती को अनेक रूपों में ग्रहण कर लिया, जबकि यहाँ वीतराग अरहंत की वाणी जो कि अनेकान्तमयी है, उसे ही मूर्ति कहा है, उसकी वंदना की है। परन्तु उस परम तत्त्व को न समझते हुए किसी विषमलिंग की मूर्ति बनाकर खड़ा कर दिया, और उसकी आराधना प्रारंभ कर दी। इसी प्रकार से केवलज्ञान लक्ष्मी की आज आराधना होना चाहिए थी, वहाँ धन-सम्पत्ति की आराधना प्रारंभ कर दी। यह तत्त्व का विपर्यास है।
हे जीव ! तुझे कोई लक्ष्मी नहीं देता है । न किसी का तू उपकार करता है, न अपकार करता है। तेरे शुभ-अशुभ कर्म का नियोग ही अपकार-उपकार कराता है। यदि कागजों की तस्वीरों से अर्थ मिलता होता, तो लोक में तस्वीरों को कितने ही लोग पूजते हैं, उन्हें सम्पत्तिशाली हो जाना चाहिए था न ? और ऐसे भी लोग हैं जो किसी को भी नहीं पूज रहे, पर वैभवशाली हैं। इससे आपको पकड़ना चाहिए कि देने-दिलाने वाले कोई जगत् में हैं नहीं। शुभाशुभ कर्म ही सुख-दुःख प्रदाता है । यही भूतार्थ है । परन्तु यह भूतार्थ व्यवहार कर्म ही जब मेरी आत्मा का धर्म नहीं है, तो फिर जिससे जो मिल रहा, वह आत्मा का धर्म कैसे हो सकता है? द्रव्य की प्राप्ति, द्रव्य की अप्राप्ति, उनका होना, कर्म का होना आत्मा का स्वभाव नहीं है। वह अभूतार्थ है।
सत्य को कितने लोग समझ पा रहे हैं ? सत्य को कितने लोग जी पा रहे हैं ? ज्ञानी ! सौ में से दो-चार भी समझनेवाले नहीं हैं। यथार्थ मानो । उनको जड़ धर्म में इतना राग है कि उसको धर्म मानते हैं, जबकि धर्म बहुत भिन्न है। दिवाल बनाना, दिवाल हटाना, इनमें धर्म मान बैठे हैं। जबकि न दिवाल हटाना धर्म है, न दिवाल उखाड़ना धर्म है। धर्म तो आत्मा का स्वभाव है। आत्मा का स्वभाव परभाव से भिन्न है। उसके लिए कुछ भी नहीं चाहिए। विश्वास रखना, धर्म के लिए कुछ भी नहीं चाहिए । ग्रहण करना धर्म नहीं है, और छोड़ना भी धर्म नहीं है। फिर धर्म क्या है ? स्वभाव में रह जाना, उसी का नाम धर्म है। छोड़ा है, तो किसी से सम्बन्ध जोड़ा है। यहाँ सम्बन्ध कारक का ही अभाव है। छोड़ता नहीं हूँ, मैं जोड़ता नहीं हूँ, मैं तो
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