Book Title: Samaysara Samay Deshna Part 01
Author(s): Vishuddhsagar
Publisher: Anil Book Depo

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Page 280
________________ २६४ समय देशना हिन्दी करना ही है। लेकिन वर्तमान में आप यहाँ बैठकर विभाव को हटा नहीं पा रहे हो, विभाव पर दृष्टि फेंक रहे हो । यहाँ हम यह समझ रहे हैं। विभाव तो विभाव है, विभाव स्वभाव नहीं है । तत्त्व का इतना गहरा निर्णय हो जायेगा, तो पुरुषार्थ प्रारंभ हो जायेगा। सत्य तो यह है कि विभाव है, इसका निर्णय ही नहीं है। शब्दज्ञान है । एक पत्थर में वजन है, कि नहीं ? उस पत्थर को आप ढोना पसन्द करते हो क्या ? नहीं करते। एक पुत्र है, उसका वजन है कि नहीं ? जगत में कौन सी ऐसी माँ होगी, जो पाँच किलो के वजन को पेट में लेकर चलती हो पत्थर का । जरा-सा फोड़ा हो जाता है तो तुरन्त ही चीरा लगाने की बात करते हैं । कि जल्दी निकाल दो, बहुत कष्ट है । पाँच किलो के शिशु को कैसे पेट में लेकर घूम रही है ? प्रसन्न है, कष्ट भी है, फिर भी खुशियाँ मनाई जा रही हैं, मिठाइयाँ बँट रही हैं। वजन को वजन कहना भिन्न विषय है, वजन को वजन मानकर चलना भिन्न विषय है। जब हम इस गद्दी पर आते हैं, तब नहीं लगता कि लोग क्या कहेंगे। हमें लोगों से प्रयोजन नहीं है। वस्तु स्वरूप समझो। माँ इतना वजन ढो रही है। जिस पर राग नहीं होता, वह यदि कंधे पर हाथ रख दे तो हटा देते हो कि वजन लग रहा है। ममत्वभाव में वजन भी भार नहीं लगता, और जहाँ राग नहीं होता, वहाँ हाथ का सहारा भी तुमको वजन देता है । , ज्ञानी ! अभी कर्मों का ममत्व नहीं हटा है। वजन ढोने में, आप गर्भवती माँ हो, प्रीतिपूर्वक ढो रही हो, ससम्मान ढो रही हो । गृहस्थी में किसे नहीं मालूम कि नवीन-नवीन कर्म आते हैं ? सबको ज्ञात है । किंचित भी परिणाम इधर-उधर किये, एक पलक झपकाते ही अनंत कर्म आ जाते हैं। ज्ञात था उन ऋषियों को, उन योगियों को, जिन्होंने श्वाँस - श्वाँस पर भी नियंत्रण किया। हाथों पर नियंत्रण किया, तीन गुप्तियों में लीन हो गये । इनको वजन लग रहा था, इसलिए हिलना पसंद नहीं किया। जो मस्ती में झूम रहे हैं, उन्हें कर्मबन्ध बिल्कुल महसूस नहीं हुए हैं। उन्हें कोई वैराग्य नहीं है । त्रिगुप्ति में वही झूम पायेगा, जिसको कर्म का वजन लगेगा, भय लगेगा, डर लगेगा। वीतरागी योगीश्वर सप्तभय से मुक्त होते है; लेकिन पापभीरू होते हैं। सप्तभय से निर्भय होने का कथन है, पर अशुभभावों से निर्भय होने का कथन नहीं है । आप गलत अर्थ मत कर लेना । सम्यग्दृष्टि सप्तभय से रहित होता है। यानी मनमानी करता है क्या ? सप्तभय से विमुक्त है । भवभीरू पापभीरू । दो से भयभीत होते हैं । भव से, पापों से भयभीत रहो । ताकि पाप का बन्ध न हो जाये। अभी वजन महसूस नहीं हो रहा है । बन्ध तो है ही नहीं । न तेरे सामने मुझे रस्सी दिख रही है, न खूँटा दिख रहा है, न नाक में रस्सी दिख रही है, फिर भी यहाँ से उठकर सीधे वहीं जाता है, जहाँ से आया था । यह गौशाला किसकी है ? बैल फिर भी पराधीन है, तो रस्सी बंधी होने से किसान के घर में बंधा है, पर आपके न पूँछ है, न सींग है, न रस्सी है, न खूँटा है, फिर भी इतना सुंदर बैल है जो सीधा गौशाला में पहुँचेगा, जहाँ रोज कुटता-पिटता है। हे ज्ञानी ! जो आँखों से दिखे वह बंध हो बंध नहीं है । अन्दर जो राग बह रहा हैं, वह सबसे बड़ा बंध है। विश्वास रखना, साधु के पास सबके हृदय खुले होते हैं, कितना भी अनाचार करें वही सब गुरू के पास कह देता है। एक नवयुवक आया, कहता है, कि मेरी पाप बुद्धि का जिस दिन ज्ञान हो जायेगा, आप मुझे आशीर्वाद भी नहीं देंगे। जबकि वह धर्मात्मा था । धर्मात्मा होना और पापात्मा होना दोनों में अन्तर है । एक कषाय का आवेग और विषयों की अनुभूति का उद्वेग है जो उसे स्ववश होने नहीं दे रहा है। फिर भी वीतराग धर्म के प्रति श्रद्धा नहीं हटी। वह कहता है, प्रभो ! जिस मंदिर पर चढ़ने के लिए पचासों सीढ़ियाँ लगाना पड़ती है; जहाँ से उतरने पर डर लगता है, पर ये विषयों का वेग कुछ भी नहीं देखता है । कैसा राग? पूछो तुलसीदास से नारी के राग में साँप को पकड़कर ऊपर चढ़ गया। पूछा पत्नी ने, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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