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समय देशना - हिन्दी
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मिथ्यादृष्टि जीव का शुभोपयोग है, वह असुरपद को देता है। सम्यग्दृष्टि का शुभोपयोग है, वह सुरपद को देता है। असुर भवनवासी देव है। इसलिए देवशास्त्र गुरु की पूजा करना ही, सम्यक्त्वदृष्टि नहीं है । देव, शास्त्र, गुरु की पूजा के साथ आठ अंगों का पालन करता है, कि नहीं। किसी ने गलती की आपने पेपर में निकलवा दिया। कैसे सम्यग्दृष्टि । प्रशम, संवेग, अनुकम्पा होना चाहिए। बिना धुली द्रव्य से पूजन करने से द्ररिदी होते है ।
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॥ भगवान् महावीर स्वामी की जय ॥
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आचार्य भगवन् कुन्दकुन्द स्वामी समयप्राभृत ग्रंथ में तत्त्व की विशद व्याख्या करते हुए समझा रहे हैं कि सम्यग्दर्शन ही मेरी आत्मा है, वही सम्यक्त्व है । अभेद अनुपचार दृष्टि से देखें तो सम्यक्त्व में और आत्मा में भेद नहीं है । जो विपरीत श्रद्धा थी उस विपरीत श्रद्धा का अभाव और समीचीन श्रद्धा का प्रादुर्भाव युगपत होता है, परन्तु श्रद्धा गुण का अभाव नहीं होता । श्रद्धा गुण त्रैकालिक है। श्रद्धा हो और अनुभूति न हो, यह कभी संभव नहीं है, जहाँ गुण प्रगट होगा, वहीं गुण की अनुभूति होगी, आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने
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हा जो कि स्वानुभूति है, वह सम्यग्दर्शन ही है । जहाँ-जहाँ सम्यग्दर्शन होगा, वहाँ-वहाँ नियम से आत्मा होगी, अनात्मा में कोई सम्यक्त्व नहीं होता। श्रद्धा चेतन में होती है, कि अचेतन में ? चेतन में होगी । श्रद्धा चेतन का गुण है, अचेतन में वह अनुभूति होगी । अनादि से मिथ्यात्व का सेवन पोषण किया है और जब मिथ्यात्व विगलित होता है, तब आत्मा में जो आनंद आता है, वह अपूर्व-अपूर्व आनंद होता है। यही कारण है कि अपूर्वकरण भी होता है। अपूर्वकरण परिणाम होते हैं । अनादि मिथ्यादृष्टि मिथ्यात्व के टुकड़े करता है, तब अनिवृत्तिकरण और अधःकरण परिणाम करता है । अपूर्वकरण परिणाम तो जो आत्मा को पूर्व में आनंद कभी नहीं आया था, उस आनंद का कारण है करण यानी परिणाम । जो परिणाम पूर्व में कभी नहीं हुए, ऐसे परिणामों का होना अपूर्वकरण परिणाम है । आप स्वयं वेदन करें, यदि किसी जीव को एक श्लोक का ज्ञान होता हैं, एक श्लोक के ज्ञान के पूर्व में जो अज्ञानभाव था, उसका अभाव हुआ, कि नहीं हुआ ? ध्यान दो, अज्ञान दुःख है तो ज्ञान सुख हैं, मिथ्यात्व दुःख है, सम्यक्त्व सुख है। असंयम दुःख है, संयम सुख है। यह तीन ऐसे सुख हैं, जो किसी के चाक्षुष नहीं हैं, यह ऐसे सुख हैं, जो किसी इन्द्रिय से नहीं भोगे जाते, यही अतीन्द्रिय सुख है। सम्यक्त्व न तो इन्द्रिय से अनुभूत किया जाता है और न ही ज्ञान इन्द्रिय से अनुभूत किया जाता है। न ही चारित्र इन्द्रिय से अनुभूत होता है। नहीं, अभी जो तीन की बात कर रहे हैं, इनका फल कहाँ बोल रहे हैं। इनका फल तो निर्वाण है। लेकिन निर्वाण होने के पहले यदि रत्नत्रय में सुख नहीं है, तो रत्नत्रय कोई धारण क्यों करेगा ? शादी होने की चर्चा चल रही थी, उसमें आपको आनंद आ रहा था कि नहीं आ रहा था ? अभी तुझे नारी की चर्चाएँ मात्र थी, उसमें आनंद आ रहा था कि नहीं आ रहा था ? जो शादी कराने की उत्सुकता का आनंद था, वह भी एक आनंद था । ध्यान दो, ऐसे ही रत्नत्रय की आराधना यह साधन है, साध्य नहीं है। निर्वाण साध्यभूत है, रत्नत्रय साधन है। जब साधन में ही आनंद आता है, तभी साध्य की ओर जाया जाता है। जब साधन में ही आनंद समाप्त हो जाये, तो साध्य की ओर गमन होगा ही नहीं । वे जीव धन्य हैं, जिन्हें साधना करते हुए सुख होता है। वह जीव दुतकारने योग्य है, जिसे साधना के काल में कष्ट होता है । वैराग्य होगा तो साधना में सुख है और वैराग्य नहीं है तो, साधना में दुःख के अलावा
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