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समय देशना - हिन्दी
२३५ बेटा । 'मेरा बेटा है' यह कह रहा है, कि नौ कोटि जीव की हिंसा की है। विकार अंदर है, विकार्य बाहर है। विकार्य है, यानी विकार है, इसलिए मोक्षमार्ग पर आ जाओ, तो विकार्य भी छूटेंगे । जब विकार छोड़ोगे, तब विकारों को निकाल दीजिए, विकार्य छूट जायेंगे और यदि विकार नहीं निकाल पाये, विकार्य छोड़ भी दोगे, पर छूटेंगे नहीं। लोगों की आँखों से तो विकार्य छूट जायेंगे, पर छुपने वाले विकार नहीं छुपेंगे। कभी-कभी भावुकता में जीव विकार्य छोड़ देता है। प्रवचनसभा में गया, ऋषिमुनियों के पास गया, तब सभी लोग प्रतिज्ञा ले रहे थे, तो उसने भी प्रतिज्ञा ले ली। सब की आँखों में विकार्य करना छोड़ दिया। उसे मालूम ही नहीं था, वैरागी नहीं था, उस समय भावुक हो गया था। घर पहुँचा, मालूम चला कि मैं क्या था । तो जगत के आँखों में न विकार्य दिख रहा था, न विकार दिख रहा था। परन्तु घर में छुपकर विकार भी कर रहा था, विकार्य भी कर रहा था, मायाचारी कर रहा था। क्यों, ऐसा परिणमन जीव के साथ होता है कि नहीं? इसलिए, ज्ञानियो ! इसे हीटर की रोटी मत बनाना । कारण, कारणभूत संबंध ही तो चल रहा है। विकार कारण है, विकार्य कार्य है। बिना कारण-कार्य के कुछ होता ही नहीं है। विकार कारण है, विकार्य कार्य है और विकार्य कारण है, विकार कार्य है। इधर से लगाओ तो ऐसा, उधर से लगाओ तो ऐसा । अब और आगे चलो। विकार कारण है
और विकारी-पर्याय कार्य है। जब-तक अशुभ पर्याय दिख रही है, किसी से प्रश्न करने की आवश्यकता नहीं है, यह विकार और विकारी का ही कार्य है। ध्यान दीजिए, पंचमकाल में आये हैं। किसने भेजा ? विकार का कार्य विकार्य, विकार्य का कार्य पंचमकाल । यदि विकार्य विकारी न होता, तो आज मेरी गति पंचम गति होती । और पंचमकाल में कार्य कर रही है, यह विकार्य और विकार का ही प्रतिफल है। अभी भी समझने, संभलने का समय है। तत्त्वबोध, प्रतिबोध पर ध्यान दो, प्रभुत्व शक्ति पर ध्यान दो। इतना निज को निज में रमण करा दो, तो विकार-विकारी भाव ही समाप्त हो जाये। विकार होने पर विकार्य भी समाप्त हो जाये, तब भी रक्षा है आपकी। विकार आते ही संभल गया, तब भी कल्याण है। विकार के साथ विकार्य हो गया. फिर तो हो गया काम । कुछ समय दे दो। विकार भाव है, विकार्य क्रिया है। वह आस्रव तो करवाती है, फिर भी ध्यान दो, अब्रह्म-भाव विकार है, अब्रह्म क्रिया विकार्य है। विकार आये और तू संभल गया, तो तेरी निज निंदा हो गई, परन्तु लोकनिंदा बच गई। विकार हुआ और विकार्य भी हो गया, तब निज निंदा भी और लोक निंदा भी हो गयी। कभी विकार ही प्रगट हो जाये और विकार्य न भी हो पाये, तब भी घात होता है। रावण से पूछो, विकार्य नहीं कर पाया, पर विकार हुआ । नरक गया कि नहीं? समझ गये न ? विकारी ही भोगों को बिना भोगे ही बंध को प्राप्त हो गया। गाथा - आचार्य वट्टकेर स्वामी 'मूलाचार' में कह रहे हैं -
कंखिदकलुसिदभूदो कामभोगेसु मुच्छिदो संतो।
अर्भुजंतोवि य भोगे परिणामेण णिवज्झेइ ॥८१।। मूलाचार | कांक्षित हुआ, कलुषित हुआ, दो शत्रु हैं। आत्मा को पहले कांक्षा होती है। कांक्षा की प्राप्ति न हो, तो कलुषता आती है। पहले जागती है इच्छा, कि इनका पेन मिल जाये। पर वह पेन आप नहीं ले पा रहे हैं, ये सो जाये तो मैं पेन ले लूँ, पर वह सोया ही नहीं। यानी पहले इच्छा हुई पेन पर, अब कलुषता हुई। प्रत्येक विषय में संबंध चल रहा है। एक व्यसनी बेटा पिता का शत्रु कैसे होता है, जबकि पिता को हृदय से चाहता है, पर व्यसन के काल में पिता दिख जाये तो पिता भी शत्रु जैसा लगता है। हे पिताओ! ध्यान दो, बेटे की खोटी आदत निकल जाये, तो धीरे से निकल जाना । उसका जो हो वह जाने, हमें अपनी दुर्गति नहीं करानी उसके
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