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समय देशना - हिन्दी होगा । आत्मा ही ज्ञान है, आत्मा ही दर्शन है, आत्मा ही चारित्र है। आत्मा ही संवर है, आत्मा ही योग है, आत्मा प्रव्याख्यान है। निश्चय से ऐसा जानो।
__ जैसे ही उन योगी ने 'स्वस्ति भवतु' कहा, वह म्लेच्छ मेढे-के-समान देखने लगा। उससे कहा, कि तुम अविनाशी पद को प्राप्त होओ, तो खुश हो गया। आपको म्लेच्छ को म्लेच्छ की भाषा में कहना चाहिए, आर्य को आर्य की भाषा में कहना चाहिए। इस प्रकार से भेदाभेद की गाथा समाप्त हुई। ॥ भगवान् महावीर की जय ॥
goa जो हि सुएणहिगच्छइ अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं । तं सुयकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पईवयरा ॥ ६ स.सा. ॥ जो सुयणाणं सव्वं जाणइ सुयकेवलिं तमाहु जिणा।
णाणं अप्पा सव्वं जह्मा सुयकेवली तह्मा ।। १० स.सा. ॥ आचार्य भगवन् कुन्दकुन्दाचार्य परमतत्त्व का प्रतिपादन करते हुए समझा रहे हैं, अहो ज्ञानी ! अध्रुव में ध्रुवदृष्टि रखकर तुमने त्रैकालिक ध्रुव को खो डाला। ध्यान देना इस शब्द पर । द्रव्य भी गुमता (खोता) है क्या? द्रव्य तो नहीं खोया जाता है, लेकिन तेरी दृष्टि द्रव्य से खो गई। उपचार से कहा जाता है, कि द्रव्य को खो डाला। जीवद्रव्य त्रैकालिक था, त्रैकालिक है, त्रैकालिक रहेगा। फिर भी कह रहे हैं हे जीव ! तूने रागादिक अध्यवसाय में लवलीन होकर विशुद्धि स्थान को खो दिया। यानी कि आपने विशुद्धि स्थानों का निज भाव में अभाव करके रखा । द्रव्य का अभाव नहीं होता, द्रव्य का विपर्यास भी नहीं होता। संभलकर सुनना, तो द्रव्य का विपर्यास नहीं, द्रव्य का अभाव नहीं, फिर क्यों कहा जाता है, कि द्रव्य का विपर्यास मत करो? द्रव्य का विपर्यास नहीं होता, द्रव्य का अभाव नहीं होता, पर द्रव्य का विपरीत श्रद्धान करके तेरा ही विपर्यास होता है । जीव तत्त्व को आप अजीव तत्त्व कहने लग जायें, उसका प्रतिपादन करें, तो जीव अजीव हो जायेगा क्या ? नहीं होगा। पर आपने ऐसा श्रद्धान कर लिया कि जीव अजीव है। अब आपका प्रश्न हो सकता है, कि जब जीव अजीव नहीं होता, तो आप जीव को अजीव कहने के लिए क्यों बाध्य कर रहे हो? आप जीव को अजीव कहने में पोथियों-की-पोथियाँ बना रहे हैं, ऐसा क्यों? वह आपसे कहता है, कि आपके सिद्धांत में जीव जीव है, अजीव अजीव है, जीव का अजीव नहीं होता, फिर आप हमारा खण्डन क्यों कर रहे हो? मैं तो अजीव कहता हूँ।
कुछ ध्यान दो। जीव का अजीव होगा नहीं, अजीव का जीव होगा नहीं, फिर भी हम आपको समझा रहे हैं, कि जीव को जीव ही कहो । क्यों? आपके कहने से जीवत्व में अजीवत्वपना नहीं आयेगा, लेकिन आपके ज्ञान में विपर्यास आ रहा है, आपके श्रद्धान में विपर्यास आ रहा है। विपरीत श्रद्धान करने वाले से धर्म का विपर्यास नहीं होता। भूल मत कर बैठना । यदि विपरीत श्रद्धान करने वाले से धर्म का विपर्यास हो जाता तो आज धर्म ही न बचता, क्यों ? तत्त्व को विपरीत समझनेवालों की संख्या कोटि-कोटि नहीं, अनंत है। जगत में सबसे ज्यादा संख्या मिथ्यादृष्टियों की ही है। वे तत्त्व को विपरीत समझते हैं। उनके विपरीत समझने से, क्या तत्त्व में विपर्यास हो गया क्या ? पहले निर्णय करो फिर आगे समझते हैं। किसी के द्वारा बैल को भैंसा कहा जा रहा है, तो क्या उसके कथन मात्र से बैल भैंसा हो जाता है ? बैल भैसा तो नहीं होगा, पर तेरे ज्ञान में विपरीतपना है, कि तू बैल को भैंसा बोल रहा है। समझाया क्यों जा रहा है ? ये जीव बेचारा तत्त्व Jain Education International
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