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समय देशना - हिन्दी
१६८ साधु बनकर साधना नहीं की है आपने, पर विद्यार्थी तो बने हो न? गहरी पढ़ाई एक घंटे में हो जाती है, अपरिचित भाव में। परिचित भाव में दस-दस घंटे पढ़ो, दूसरों को बैठा लेना बगल में, पृष्ठ पलट जायेंगे, परन्तु पढ़ाई नहीं होती। ऐसे ही पर पर्याय में, राग को पास में बैठा करकर साधना करेगा तो वर्ष-के-वर्ष व्यतीत हो जायेंगे, परन्तु साधु-स्वरूप की अनुभूति नहीं आयेगी। इसमें अपरिचित रहना, यही भूतार्थ है। भूतार्थ क्यों ? स्वलक्ष्य की अपेक्षा से भूतार्थ है । परलक्ष्य मेरे स्वलक्ष्य के लिए अभूतार्थ है। स्वलक्ष्य तो स्वलक्ष्य के लिए भूतार्थ है। कठिन हो रहा है ? भूतार्थ जो है, वह भूतार्थ है। अभूतार्थ है, वह अभूतार्थ है। एक ही द्रव्य में दोनों धर्म है। और युगपत् हैं | कथन युगपत् नहीं है, परन्तु वस्तुस्वरूप युगपत है। आपके पास जो बैठे हैं, वह मित्र हैं कि अमित्र है ? ये शब्दागम है, कि भावागम है ? आपने तो कह दिया कि मित्र है या कि अमित्र है। द्रव्यआगम से बोल रहे हो कि भावागम से ? आपका तो एक ही हो सकता है, पर वह अपने आपमें दो हो सकता है । जो केवली भगवान बनने जा रहा है जीव, वह वस्तुओं को देखकर भगवान नही बनता, वस्तुओं के स्वरूप का वेदन करने से बनता है, क्योंकि देखना तो सीमित है जबकि अनुभव असीम है। जीभ पर रखना सीमित है, वेदन करना असीम है। जितना बंध भोग को भोगते हुए नहीं करते, उतना बंध भोगों के आगे-पीछे करते हो। रसानुभूति विशाल है, रस अल्प है। एक व्यक्ति ने किसी को गाली दे दी और दोनों दूर हो गये, समय का काम हो चुका था। घर में जाकर चिंतन प्रारंभ कि मुझे वह गाली क्यों दे गया ? गाली कितनी बड़ी थी? ज्ञानी ! जैसी थी, वैसी थी, पर वह शब्द शक्ति इतनी संघात रूप में थी, उसकी तरंगे इतनी विशाल हो गईं कि चौबीस घंटे चलीं है, फिर भी समाप्त नहीं हुईं और ज्यादा गहरे में चली गईं, हृदय की धड़कन बढ़ गई। और ऊपर चले गये, परन्तु गाली नहीं गई।
__ हे ज्ञानियो ! जैसे गाली को स्वीकार किया है, वैसे भगवत् वाणी को स्वीकार कर लो, तो भगवान् बन जाओगे। जितनी कर्म निर्जरा वंदन कायोत्सर्ग आदि शरीर की क्रियाओं से नहीं होती, उससे अधिक निर्जरा ध्यान करने में होती है। तन द्वैत रूप काम करता है, मन एकरूप करता है। कोई चाँटा मार दे तो दो धाराओं में दर्द बँट जाता है । जहाँ चाटा मारा उस जगह और मन में। परन्तु कोई गाली दे दे, तो एक धारा सीधे मन पर जाती है। उपयोग को जैसे किसी की गाली के ध्यान में लगाता है, वैसे ही ध्यान करे तो भगवत् स्वरूप को प्राप्त कर ले। जैसे किसी की बात लग जाती है तो व्यक्ति सदमा में, तनाव में पहुँच जाता है, उसका बोलना खाना-पीना, हाथ-पैर चलना सब बंद हो जाता है। ऐसा सद्मा स्वरूप पर लगाये, जो निर्विकल्प निश्चय ध्यान है। जहाँ खाना समाप्त, बोलना समाप्त, देखना समाप्त । गहरे में व्यक्ति चला जाता है। यहाँ तनाव, सदमा से तात्पर्य गहरी सोच से लेना है, एकाग्रता से लेना है। अभी व्यक्ति को ध्यान का सद्मा लग नहीं रहा है, गहरे में जा नहीं रहा है, परभावों की गहराई में जाता है तो सहज नेत्र बंद होकर अनुभूति लेने लगता है, ऐसे अरूपी आत्मा की गहराई में जाये, तो सहज अनुभूति प्रारंभ हो जाये।
क्या आपने अपने जीवन में कठपुतलियों के खेल नहीं देखे ? शब्द कहीं होता है, क्रिया कहीं होती है। शब्दों की कसरत मुख में है, पर चिंतन अन्तस् में नहीं है। बिना चिंतन के शब्द बोलिये आप, बिना सोच के शब्द बोलिये। जितने गहरे शब्द आयेंगे, उतना गहरा सोच होगा। जिस क्षण गहरे सोच से शब्द आयेंगे, वहाँ तत्क्षण उतनी शुचिता अंदर में होगी। धूम इतना विशाल दिख रहा है, तो अग्नि उतनी ज्यादा होना चाहिए। मन के वचन नहीं होगे न, तो पकड़ा जायेगा और भावप्रमेय की अपेक्षा से मन के वचन नहीं है, वे भी
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