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समय देशना - हिन्दी
१६७ है, उसमें ही जी रहा हूँ। इसलिए आप बड़ी अनुकम्पा करना हमारे ऊपर कि मुझे इससे दूर रखना । क्योंकि जिस दिन मैं आप वाले तीर्थ में चला जाऊँगा, तब मैं समयसार की व्याख्या नहीं कर पाऊँगा। क्योंकि फिर उस बात को छिपाने के लिए मुझे समयसार की बात भी छिपानी पड़ेगी, नहीं कह पायेंगे। कारण कि एक समय में एक ही तीर्थ की रक्षा कर पायेंगे। जो बना रहे हैं, उनका विरोध नहीं करना, पर नये बनाने का विचार नहीं लाना । दोनों तीर्थ की रक्षा करो । व्यवहार तीर्थ भी अनिवार्य है, और निश्चय तीर्थ भी अनिवार्य है। जो व्यवहार की योग्यता रखते हैं, उन्हें व्यवहार तीर्थ बनाना ही चाहिए और जो निश्चय तीर्थ की योग्यता रखते हैं, उन्हें निश्चय तीर्थ में लगना ही चाहिए । इसलिए श्रावक व्यवहार से तीर्थ निर्माण का पात्र है, और साधु निश्चय तीर्थ के पात्र हैं। आगम क्या कह रहा है? आगम तो यही कहेगा कि व्यवहार तीर्थ की स्थापना श्रावक करे, निश्चय तीर्थ तो साधु होता ही है। यही कारण है कि निश्चय तीर्थ जहाँ पहुँच जाता है, वहाँ व्यवहार तीर्थ भी निश्चय तीर्थ बन जाता है।
"जे गुरु चरण जहाँ धरे, जग में तीरथ होय" ___ पंचकल्याणक भूमियाँ निश्चय तीर्थ में प्रवर्तन करने वालों के द्वारा ही स्थापित हैं। स्थापित की नहीं थी, उनके निमित्त से स्थापित हो गई थी। बहुत गहरा है श्रुत । निश्चय, निश्चय है, व्यवहार, व्यवहार है। दोनों नय धर्म नहीं है, और दोनों नयों से रहित भी धर्म नहीं है। धर्म जो भी होगा, दोनों नयों से ही कहा जायेगा, पर दोनों नयों से कहने पर भी वह व्याख्येय है, धर्म नहीं है। धर्म तो धारण किया जाता है, धर्म कहा नहीं जाता है। जो कहा जाता है, वह धर्म का व्याख्यान होता है। लोगों ने व्याख्यान को धर्म मान लिया हैं, ये बहुत बड़ी कमी आ गई। आज जो नये विद्वानों में धर्म की पद्धति चली है, वह व्याख्यान/प्रवचन के नाम पर भाषण करनेवाली पद्धति है। सबसे खतरनाक कोई वस्तु है, तो वह है पुण्य, जिसके योग में जीव अशुभ कर्म कर निजात्मा को संसार पंक में फंसाकर दु:ख को प्राप्त होता है। पुण्य पाप के उदय में साम्यभाव रखो।
ये विद्वानों की लाइन बैठी है, ये क्या कम विद्वान है? कम नहीं हैं। वाचना में पं. परमानंद जी शाहगढ़ थे, जो उच्च कोटि के विद्वान् थे, फिर भी बहुत ही सरल, सहज थे। 'धवला' जी की ८ वीं पुस्तक की वाचना चल रही थी, बाहर से विद्वानों को बुलाया गया, पर पं. परमानंद जी ने अपनी विद्वत्ता कभी नहीं बताई। वाचना शुरु हई,पहले ही दिन जो बाहर के विद्वान थे, वे टीका नहीं लगा पाये। धवला टीका कठिन पडती है । उसका नाम मुक्ताहार टीका है, मणियों के बीच में मुक्तामणि लगाया जाता है, तब वह सुंदर बनता है। ऐसे ही धवला टीका है। पूरी टीका प्राकृत में नहीं है, न संस्कृत में है। प्राकृत टीका में बीच-बीच में संस्कृत टीका है। इसलिए उसका नाम है मुक्ताहार टीका । अब जब जिस विद्वान् को बुलाया था, वे नहीं लगा पा रहे थे तब पं. परमानंद शास्त्री अपनी भाषा में कहते हैं, इनको हम देखे क्या । आचार्य श्री ने कहा- हाँ, पं. जी आप तो कर लेंगे, आइये न । जैसे ही पं. साहब को बैठाया, खटाखट पूरी टीका कर दी। फिर क्या था, पूरी वाचना उन्होंने की। उनसे कहा आप इतने बड़े विद्वान्, आपने बताया नहीं। उन्होंने कहा- हाँ, आचार्य श्री! मैने न्याय, व्याकरण, नय, न्याय सब पढ़ा है, पर हमारी प्रकृति ऐसी है कि हम कह नहीं पाते। उन्होंने संस्कृत में छन्द लिखे हैं । ऐसे भी ज्ञानी जीव हैं, जिन्हें ज्ञान है, पर मान-सम्मान में पड़ते नहीं।
ऐसे भी ज्ञानी जीव हैं जिन्हें ज्ञान नहीं है, पर वक्तृत्वपना है, इसलिये लोक में छाये हैं, पर उनसे पूछना एक प्रश्न कोई गहरा, तो वह बता नहीं पायेंगे । आप अपनी उत्साह शक्ति को भंग मत करना । तत्त्व के विपर्यास का जो प्रशिक्षण चल रहा है, उसे आप भी चार विद्वानों में शुरू करो। कोई प्रचार की आवश्यकता
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