________________
२१८
समय देशना - हिन्दी सात तत्त्वों पर श्रद्धान करना सम्यक्दर्शन है, भूतार्थ है, सत्यार्थ है, लेकिन जब तू शुद्धात्मा में लवलीन होगा, वीतराग निश्चयसम्यक् तभी प्रगट होगा, जब एकमात्र शुद्ध चिद्रूप धौव्य निजआत्मा पर ही तेरा श्रद्धान होगा। यह परमार्थ है ।
तेरहवीं गाथा की टीका गहनतम् अध्यात्म से भरी हुई है, उससे पहले आप बारहवीं गाथा की आचार्य जयसेन स्वामी की टीका देखें । पूर्व गाथा में कहा है कि जो भूतार्थनय का आश्रय लेता है, वह जीव सम्यकदृष्टि होता है। मात्र भूतार्थ निश्चयनय ही नहीं, निर्विकल्प समाधि में रत है, वही प्रयोजनवान है । जिनमुद्रा प्रयोजनभूत है, जिनलिंग प्रयोजनभूत है, वीतराग मुद्रा प्रयोजनभूत है, पिच्छि- कमण्डलु प्रयोजनभूत है । लेकिन कब ? जब निर्विकल्प ध्यान में लीन दशा है तब । हे ज्ञानी ! ये सभी अप्रयोजनभूत हैं, निज शुद्धात्म स्वरूप ही प्रयोजनभूत है । जब आप निज स्वभाव में लग जायें, तो षटआवश्यक प्रयोजनभूत हैं। परन्तु वह निर्विकल्प ध्यान की अवस्था जिनलिंग में ही बनेगी। वह प्रयोजन का प्रयोजन होने के कारण वह भी प्रयोजनभूत है । प्रयोजन का प्रयोजन, कारण का कारण । सम्यक्दर्शन कारण है, सम्यक्ज्ञान कार्य है | 'पंचास्तिकाय' में कारण-परमाणु, कार्य-परमाणु वर्णन है। वही परमाणु कारण - परमाणु भी है, वही कार्य परमाणु भी होता है । जब परमाणु स्कन्धपने को प्राप्त होवे, तब वह कारण परमाणु है। जब स्कन्ध से परमाणु रूप बने, तब कार्य परमाणु है । द्रव्य परमाणु, भाव परमाणु । परमाणु कार्य भी है, कारण ' है। कारण कब है? जब परिणामों की विशुद्धि क्षपकश्रेणी की ओर ले जाये, तो ये तेरे कारण-परमाणु, भाव परमाणु । जब ये निम्न गुणस्थान से ऊपर की ओर जायें, तो कारण - परमाणु है, और जब निजगुण में स्थिर हो जाये, तो वे कार्य परमाणु हैं । पुनः देखो, सम्यक्दर्शन कारण - सम्यक्त्व है, कि कार्य सम्यक्त्व है। इसलिए आगम की किसी भी विवक्षा को एकांगी कभी कहा नहीं जा सकता है। सम्यक्त्व सम्यक्ज्ञान के लिए कारण है, आपने पहले ‘पुरुषार्थसिद्धि उपाय' में पढ़ा है। 'कारण कार्य विधानं" सम्यक्त्व ज्ञान के लिए कारण है। सम्यक्त्व स्वयं के लिए कार्य है और वही सम्यक्दर्शन, सम्यक्चारित्र के लिए भी कारण है। बिना सम्यक् के न तो ज्ञान में सम्यक्पना आता है, ना ही चारित्र में सम्यकपना आता है। इसलिये दोनों के लिए सम्यक् कारण है। पर उस सम्यक् का कारण क्या है ? प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य, कर्म की प्रकृतियों का क्षय, क्षयोपशम सम्यक्त्व के कारण हैं और सम्यक्त्व कार्य है। यही कारण है कि पूर्वक्षणवर्ती परिणाम कारण है, उत्तरक्षणवर्ती परिणाम कार्य है | ये ‘कारण कार्य विधान' सर्वत्र लगाना । एक समयवर्ती परिणाम कारण कार्य है । 'कारण कार्य विधान' हो जाये और समयभेद न हो, यह संभव है क्या ? हो सकता है, क्यों हो सकता है ? दीपक जला, प्रकाश हुआ, अंधकार गया । यह कब हुआ, कितने समय लगे ? एक समय में हुआ । कालभेद हो नहीं, कार्यभेद हो जाये, यह संभव है कि नहीं ? कार्यभेद होने पर भी कालभेद नहीं होता, और कालभेद होने पर भी कार्यभेद नहीं होता । और कार्य भेद में कालभेद हो जायेगा तो उत्पाद - व्यय - ध्रौव्यत्व की सिद्धि भंग हो जायेगी । उत्पाद भिन्न कार्य है, व्यय भिन्न कार्य है, ध्रौव्य भिन्न कार्य है, पर काल तीनों का एक है। उँगली द्रव्य है, सीधी पर्याय है । उंगली टेड़ी, तो पर्याय टेड़ी । द्रव्य के टेड़े किये बिना पर्याय टेड़ी कैसे हो गई ? यही हृदय का टेड़ापन है। ये पर्याय में टेड़ापन मानते हैं, परन्तु द्रव्य में टेड़ापन नहीं मानते । तत्त्व की परम भूल है । पर्याय बदलती है कि, द्रव्य बदलता है ? हे ज्ञानी ! द्रव्य के परिणमन का नाम ही तो पर्याय है । परिणमन की संज्ञा पर्याय है, परिणमन तो द्रव्य में है । द्रव्य में परिणमन नहीं होगा, तो पर्याय किसकी होगी ? इसे अच्छे से समझ लो । परिणमन की संज्ञा पर्याय है, लेकिन परिणमन पर्याय में नहीं, द्रव्य में हो रहा है। यदि पर्याय का परिणमन ही
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org.