________________
समय देशना - हिन्दी
२२२ का शुद्ध ज्ञान रूप परिणमन नहीं हो पायेगा और आत्मा त्रैकालिक भगवान नहीं बन पायेगी। यह द्रव्यानुयोग का सिद्धांत है, फिर करणानुयोग का सिद्धान्त कितना गहरा होगा?
पर-भावों से हटाना बुद्धि का विषय है। जैसे शरीर के परिणमन में चेतना काम करती है, वैसे ही चारों अनुयोग के परिणमन में, ज्ञानी जो चर्चा चल रही है वर्तमान में, यही काम में आयेगी। किसी भी अनुयोग को पढ़ना, पर इसके अभाव में कोई भी अनुयोग चलता नहीं। इसलिए जब विजातीय पर्याय में स्वजाति रहेगा, तब इस जीव के परिणमन से ही शरीर में परिणमन चलेगा। फिर भी स्वतंत्रता देखेंगे, तो जीव का जीवत्व परिणमन है, पुद्गल का पुद्गलत्व । शरीर थक जाये, वृद्ध हो जाये, उससे भी मोक्ष जा सकते हैं और आठ वर्ष के शरीर से भी मोक्ष जाते हैं। फिर शरीर के राग को छोड़कर के दो ही पर्याय देखना, एक नहीं देखना । इस शरीर का उत्पाद-व्यय स्वतंत्र है, मेरा उत्पाद-व्यय स्वतंत्र है । प्रत्येक दर्शन शाब्दिक कथन को करना जानता है, चार्वाक को छोड़कर । आत्मा के बारे में ध्यान देना, 'चेतना' शब्द का ज्ञान भी चेतना की प्राप्ति नहीं है। 'ध्रुवज्ञायक-भाव' शब्द का प्रयोग भी ध्रुव-ज्ञायक-भाव नहीं है। श्रद्धा होना चाहिए।
जिस भवन में मैं निवास कर रहा हूँ, उस भवन का कौन-सा कण तेरी चेतन पर्याय में सहयोग करेगा ? जिस दिन तेरी अर्थी उठेगी, उस दिन सब छूट जायेगा । आज पर के राग में रो रहा है, कल तेरे राग में कोई रोयेगा। तू किसको रो रहा है। जब ईट-चूने के मकान की एक ईट मेरे साथ जानेवाली नहीं है, फिर इस तन की सुन्दरता भी इस चेतन के साथ जाने वाली नहीं है। आप अपनी जवानी का फोटो देखों, और आज की पर्याय को देखो। वह संभाल नहीं पाया, तो अब चेतन में, आत्मा में सम्हल कर रहो, तो चिद्रूप भगवान्- अवस्था को प्राप्त कर लोगे। शुद्ध सोना तो सोलह ताव का ही होता है, पर अशुद्ध सोने में सोने का अभाव नहीं है, लेकिन शुद्ध सोना नहीं है । सविकल्प अवस्था में मिथ्यात्व, विषय-कषाय, दुर्विभाव से बचने के लिए पूजन-पाठ करना, मूलगुणों का पालन करना, भक्ति-स्तुति करना भी अप्रयोजनीय नहीं हैं । ये भी प्रयोजनभूत हैं । कैसे ? सोने के आभूषण के लिये लाख वाला ही सोना चाहिए। पर शुद्ध सोना तो डली का सोना है, आभूषण में कहाँ मिलता है। फिर भी कुण्डल भी सोना है। इसी प्रकार से भगवान की आदि भक्ति करना धर्म ही है। पर शुद्ध धर्म नहीं है, व्यवहार धर्म है। परन्तु स्वाहा-स्वाहा में ही जीवन नहीं निकालना है। शुद्ध को शुद्ध जानना चाहिए, भाना चाहिए । सोलहताव का शुद्ध सोना अभेद से प्रयोजनभूत है, निष्प्रयोजन नहीं है। निचली भूमिका में व्यवहार प्रयोजनभूत है, ऊपरी भूमिका में निश्चय प्रयोजनभूत है। अप्रयोजनभूत कोई नहीं है। चौथे गुणस्थान में सबकुछ लगाकर बैठ जाते हैं, यह ठीक नहीं है। ऐसा कहना चाहिए ताकि जो तत्त्व की भूल किये बैठे थे, वे संभल जायें । चतुर्थ गुणस्थान में शुभोपयोग होता है, और प्रमत्त-अप्रमतदशा में भेद रत्नत्रय में ठहरना । अभेद रत्नत्रय में ठहरना । जब तक सरागदशा है, तब तक निर्विकल्प दशा नहीं है। निर्विकल्प ध्यान तभी होगा, जब भेदाभेद रत्नत्रय तेरी आत्मा में आयेगा।
॥ भगवान महावीर स्वामी की जय ।।
qqq
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org