Book Title: Samaysara Samay Deshna Part 01
Author(s): Vishuddhsagar
Publisher: Anil Book Depo

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Page 234
________________ समय देशना - हिन्दी २१६ परिणमन है, तो पर्याय अलग से परिणमन करेगी, द्रव्य अलग परिणमन करेगा, गुण अलग परिणमन करेंगे, मालूम चला कि तीनों भिन्न-भिन्न हो जायेंगे, जबकि सिद्धांत-सूत्र कहता है : पज्जय विजुदं दव्वं, दव्वविजुत्ता य पज्जया णत्थि । दोण्हं अणण्णभूदं, भावं समणा परूविंति ॥१२॥ पंचास्तिकाय || इसलिए ध्यान दो । आत्मा ही क्रोधी, आत्मा ही मानी, आत्मा ही मायावी, आत्मा ही लोभी है। यह भूलकर भी मत कह देना कि ये आत्मा की परिणति नहीं है। यदि पर्याय में हो रही हैं तो जब इस पर्याय (शरीर) में आग लगेगी, तो चारों कषायें भी जल जायेंगी, तू अकषायी हो गया, तू तो भगवान् बन जायेगा । क्यों ? यह बताओ कि ये क्रोधादि भाव आत्मा के भाव हैं , कि मनुष्य पर्याय के भाव हैं ? यदि तू ऐसा कहता है कि मनुष्य पर्याय के भाव है, तो जब मनुष्य पर्याय जल जायेगी, तो भाव भी जल जायेंगें। नहीं तो इसी पर कथा सुनाता हूँ । श्रेणिक चरित्र में पढ़ा होगा। चेलना ने मठ में आग लगा दी थी। क्योंकि उससे कहा गया था, कि जब हमारे गुरु ध्यानस्थ होते हैं, तब परमात्मा में लीन हो जाते हैं। तब चेलना ने विचार किया, कि जब परमात्मा में लीन हो जाते हैं, तो पुद्गल को जला देना चाहिए । जब पुद्गल जल जायेगा, तो उनको वापस रहने को स्थान नहीं मिलेगा, तो परमात्मा में लीन रहेंगे । हे मुमुक्षु ! ध्यान रखना, यह जीव-तत्त्व का विपर्यास है, तत्त्वदृष्टि का विपर्यास है। कषायभाव पर्याय के भाव नहीं, कषायभाव पर्यायी के भाव हैं। पर्याय के निमित्त से प्रगट होते हैं। टी.वी. में कोई चित्र नहीं होते, टेलीविजन से चित्र देखे जाते हैं। वह तरंगें तो टी.वी. केन्द्र से छोड़ी जाती हैं। तो क्या म कषाय नहीं होती है, तिर्यञ्च पर्याय में कषाय नहीं होती है, नारक पर्याय में कषाय नहीं होती, देव पर्याय में कषाय नहीं होती? कषाय तो तद् पर्यायी के अन्दर है, यह तो प्रगटन स्थान है। जैसा स्थान विशिष्ट होगा, वैसी कषाय विशिष्ट होगी। देव को लोभ विशिष्ट है, तिर्यञ्च की माया विशिष्ट है। विकारी-गुण पर्याय के प्रगटीकरण के लिए व्यञ्जन पर्याय है। मनुष्यादि, गुणपर्याय जैसी होगी, व्यंजनपर्याय का प्रदर्शन वैसा होगा। __ हे मुमुक्षु ! व्याप्य-व्याप्क संबंध है । फिर कहो कि यह पर्याय का सहभावी, अविनाभावी है। नरक पर्यायें होंगी, उसमें क्रोध पर्याय नियम से होगी। यह नरक-पर्याय का सहभावी परिणमन है। इसी प्रकार से जो यह जीव संसार-पर्याय में आयेगा, तो उसके कषायभाव आयेंगे। अपने निज पुरुषार्थ से वह उनको शमन कर सकता है । वृक्ष में आम्रफल का प्रगटीकरण होगा, तो नियम से उसमें रस, गंध, वर्ण होगा। होगा, कि नहीं ? यह कौन-सा संबंध है ? सहभावी है। यह बहुत जटिल प्रश्न है। इन्होंने सहभावी कहा। सहभाव अवस्था को बदल सकते हैं, कि नहीं? ध्रुव सत्य यह है, कि यदि सहभावी में परिणमन नहीं मानोगे तो केवलज्ञान कभी नहीं होगा। इसलिए सहभावी अवस्था भी बदलती है। किसमें? द्रव्य में, गुण में, पर्याय में किसमें द्रव्य, गुण, पर्याय में। ध्यान दो यह तुम्हारी विषमता की अवस्था है। पुद्गल व जीव की क्या विडम्बना कहूँ | चार द्रव्य बड़े ही सुन्दर हैं । वे विजातीय को स्वीकार कभी नहीं करते, लेकिन दो द्रव्य ऐसे हैं, जो विजातीय को स्वीकार करते हैं। इसलिए मात्र दो तत्त्व में झगड़े हैं, चार द्रव्यों में सात तत्त्वों का कोई विकल्प नहीं। क्योंकि, इस जीव के अन्दर दो पर्यायों का एकसाथ परिणमन होता है । असामान्य जाति, सामान्य जाति । जब हम स्वरूप सादृश्य को निहारते हैं, तो स्वरूप सादृश्य में क्या निहारते हैं । मैं चैतन्य द्रव्य हूँ, ज्ञान-दर्शन मेरा गुण है, जीवद्रव्य में हूँ, मेरे में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य चल रहा है। तन का उत्पाद तन में चल रहा है, मेरे चैतन्य का नहीं। विभावव्यञ्जन-पर्याय को गौण करके, इस शरीर के परिणमन से मेरे किंचित भी विभाव-स्वभाव नहीं है । भटकना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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