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समय देशना - हिन्दी
२१३ व्रती बनना । क्योंकि अव्रतीपन से आस्रव होता है अधिक । लाभदृष्टि निहारिये, ज्ञानदृष्टि नहीं। मोक्षमार्गी तत्त्वज्ञान-दृष्टि तो देखता है, मोक्षमार्गी तत्त्वलाभ भी दृष्टि देखता है। पक्ष दोनों प्रबल हैं। मोक्षमार्गी यह नहीं देखता कि ज्ञान मेरा कितना बढ़ा है। मोक्षमार्गी यह देखता है कि आस्रव कितना कम हुआ । अब आपको बात भूतार्थ लग रही है । मोक्षमार्गी यह नहीं देखता, कि मेरी ऋद्धि कितनी बढ़ी। वह यह देखता है कि मेरी ऋद्धि कितनी कम हुई ।वह यह नहीं देखता कि मेरी प्रसिद्धि कितनी हुई। मोक्षमार्गी यह देखता है कि मेरे कल्याण की सिद्धि कितनी हुई। आप लेखा-जोखा बनाते हो, तो उसमें लाभ-हानि देखते हो। जहाँ लाभ दिखता है, पुरुषार्थ वहाँ बढ़ | जहाँ हानि दिखती है, वहाँ का पुरुषार्थ कम हो जाता है। यदि हमारे ज्ञान से मद बढ़ रहा है, तो उस ज्ञान की चर्चा को गौण करके सामायिक को बढ़ायेंगे। जिस चर्चा से विशुद्धि में कमी आ रही हो, उस चर्चा को शीघ्र विराम करना, और जिस चर्चा से विशुद्धि बढ़ रही है, उस चर्चा को आगे बढ़ाना, और जिस चर्चा से विशुद्धि घट रही है, उसे बीच में ही रोक देना।
हमारा आपसे विरोध नहीं है। मेरा लक्ष्य भिन्न है, आपका लक्ष्य भिन्न है। दो त्यागियों से चर्चा हुई। उनकी चर्चा भी उनके लायक थी। प्रश्न यही आया कि आप भी उस ओर कदम बढ़ाओ जमाने के अनुसार। एक ही उत्तर था आप जिस लक्ष्य को निर्धारित कर चुके हो, इसलिए आप लक्ष्य पर चलो। लक्ष्य के अनुसार सिद्धि करना तो ठीक है, पर स्वात्मोपलब्धि सिद्धि की दृष्टि है, तो मैं आपके लक्ष्य पर नहीं चल पाऊँगा । एक सज्जन आये, कहा कि मैं आपके नाम का तीर्थ बनाना चाहता हूँ। मैंने कहा कि तू मेरे नाम का तीर्थ बनायेगा तो वर्षों लग जायेंगे । पर मैं आज ही तीर्थ हूँ, तू क्यों बनाना चाहता है ? अन्दर का तीर्थ तो हमारा हमें ही दिखता है। आप बाहर का ही तीर्थ देखते हो। ये तन हमारा बाहर का तीर्थ है और चेतन हमारा अन्दर का तीर्थ है। मेरे पास दोनों तीर्थ हैं । आप बनाओगे, मैं देख पाऊँ या न देख पाऊँ। तो जो गुरु ने तीर्थ दिया है, उसमें ही जी रहा हूँ। इसलिए आप बड़ी अनुकम्पा करना हमारे ऊपर कि मुझे इससे दूर रखना। क्योंकि जिस दिन मैं आप वाले तीर्थ में चला जाऊँ गा, तब मैं समयसार की व्याख्या नहीं कर पाऊँगा। क्योंकि फिर उस बात को छिपाने के लिए मुझे समयसार की बात भी छिपानी पड़ेगी, नहीं कह पायेंगे। कारण कि एक समय में एक ही तीर्थ की रक्षा कर पायेंगे । जो बना रहे हैं, उनका विरोध नहीं करना, पर नये बनाने का विचार नहीं लाना। दोनों तीर्थ की रक्षा करो। व्यवहार तीर्थ भी अनिवार्य है, और निश्चय तीर्थ भी अनिवार्य है। जो व्यवहार की योग्यता रखते हैं, उन्हें व्यवहार तीर्थ बनाना ही चाहिए और जो निश्चय तीर्थ की योग्यता रखते हैं, उन्हें निश्चय तीर्थ में लगना ही चाहिए । इसलिए श्रावक व्यवहार से तीर्थ निर्माण का पात्र है, और साधु निश्चय तीर्थ के पात्र हैं। आगम क्या कह रहा है? आगम तो यही कहेगा कि व्यवहार तीर्थ की स्थापना श्रावक करे, निश्चय तीर्थ तो साधु होता ही है। यही कारण है कि निश्चय तीर्थ जहाँ पहुँच जाता है, वहाँ व्यवहार तीर्थ भी निश्चय तीर्थ बन जाता है।
"जे गुरु चरण जहाँ धरे, जग में तीरथ होय" पंचकल्याणक भूमियाँ निश्चय तीर्थ में प्रवर्तन करने वालों के द्वारा ही स्थापित हैं। स्थापित की नहीं थी, उनके निमित्त से स्थापित हो गई थी। बहुत गहरा है श्रुत । निश्चय, निश्चय है, व्यवहार, व्यवहार है। दोनों नय धर्म नहीं है, और दोनों नयों से रहित भी धर्म नहीं है। धर्म जो भी होगा, दोनों नयों से ही कहा जायेगा, पर दोनों नयों से कहने पर भी वह व्याख्येय है, धर्म नहीं है। धर्म तो धारण किया जाता है, धर्म कहा नहीं जाता है। जो कहा जाता है, वह धर्म का व्याख्यान होता है। लोगों ने व्याख्यान को धर्म मान लिया हैं, ये बहुत बड़ी कमी आ गई। आज जो नये विद्वानों में धर्म की पद्धति चली है, वह व्याख्यान/प्रवचन के नाम पर भाषण करनेवाली पद्धति
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