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समय देशना - हिन्दी
१६५ भोजन छोड़ दिया। इसलिए भ्रम निकाल देना कि संयम से कुछ नहीं होता है। भले आपने संयम में पहले दोष भी लगा लिए, लेकिन जब तुम्हारी दुर्गति हो जायेगी, तब वही संयम कहेगा, कि संयम में खोटा भाव किया था, उसका परिणाम ऐसा हो गया, अब ऐसा नहीं करना।
मेंढ़क आर्त्तध्यान से मरण को प्राप्त हुआ, पर उसकी सामायिक काम में आई कि नहीं? मैं क्या कह रहा हूँ ? परिणाम न भी लग रहे हों, पर धारण कर लिया है तो छोड़ना मत । आज छोटे-छोटे बालक संयम धारण कर रहे हैं, क्यों? वह पूर्व के संस्कार स्पर्श कर रहे हैं, कि मुझे साधु बनना है। खट्टा द्रव्य मुख में आने से मुख खट्टा होने लगता है। खट्टी वस्तु को देखकर किसी के दूर से ही दाँत खट्टे हो जाते हैं। परन्तु परभावों को देखकर क्यों खट्टे हो रहे हो ? आगम क्या कह रहा है ? (१) दृष्ट (२) श्रुत (३) अनुभूत, इन्हीं विषयों के द्वारा जीव संसार में भ्रमण कर रहा है।
पृथ्वी निर्विकार है, गगन भी निर्विकार है, पर विकार तो आसपास दीवालों पर है। विकार के साथ जाओगे तो नीचे और निर्विकार जाओगे तो ऊपर जाओगे। शुद्ध विकार में जाओ तो शुद्ध निगोदिया बनो और शुद्ध निर्विकार में जाओ तो सिद्ध बनो। ऊपर जाना है तो विचारों का भी विचार छोड़ दो। यह है स्याद्वाद शैली और स्याद्वाद के अभाव में जो समसयार की व्याख्या करेगा, वह स्वपर वैरी है।
कुशलाकुशलं कर्म परलोकश्च न क्वचित् । आचार्य-भगवान् अमृतचन्द्र स्वामी बड़ी सहजभाषा में कह रहे हैं, नय-नय को लेकर विकल्प करने वाले के नय पक्ष को छोड़े बिना विकल्पातीत होना कभी संभव नहीं है और ध्रुव सत्य यह है, कि जगत का जीव नयार्थ को गौण करके एकान्त से नय को पकड़ हुये है। अज्ञ प्राणियों ने नयार्थ को न समझते हुए नय को पकड़ लिया है । नयार्थ कहता था, कि अमुक अर्थ के प्रयोजन से प्रयोग किया जाता हूँ। जैसे कि निश्चयनया यह तो भाषा है, पर निश्चयनय का प्रयोजन क्या है, नयार्थ क्या है ? वस्तु के भूतार्थ स्वरूप को समझना, यह निश्चयनय का अर्थ था । व्यवहारनय का अर्थ क्या था ? वस्तु की व्यवस्था को भेदरूप में समझना । परन्तु हो उल्टा गया। नयार्थ पर ध्यान गया नहीं, नय पर ध्यान चला गया। स्वरूप और नय मात्र को लेकर , विकल्पों में आकर कि हम निश्चय वाले हैं, हम व्यवहार वाले हैं, विवाद में चला गया, नयार्थ में नहीं गया। नयार्थ का नया अर्थ कर बैठा, कि मैं अमुकवाला हूँ। लेकिन नयार्थ का अर्थ अमुकवाला नहीं था। नयार्थ का अर्थ था अभेद अर्थ को जानना, भेद अर्थ को जानना । स्त्री, पुरुष, नंपुसक भेद अर्थ को कह रहा है । पुरुष आत्मा अभेद अर्थ है । स्त्री है, उसमें भी आत्मा है। ‘कहना' शब्द जब-तक जुड़ा है, तब-तक नयार्थ है और 'कहना' समाप्त हो जाये, तो वस्तु वस्तु है। निश्चय स्वरूप की अनुभूति अवक्तव्य है, पर निश्चय स्वरूप अवक्तव्य नहीं है यह भी ध्यान रखना । यदि निश्चय स्वरूप अवक्तव्य हो जायेगा, तो 'आत्मप्रवाद पूर्व का अभाव हो जायेगा। जो निश्चयस्वरूप है, वह वक्तव्य है, और जो व्यवहारस्वरूप है, वह वक्तव्य है। अनुभूतियाँ दोनों की अवक्तव्य हैं । यदि दोनों को व्यवहार की कह दोगे तो दोनों की भाषा एक हो जावेगी जबकि दोनों की भाषा भिन्न-भिन्न है, दोनों के भाव भिन्न-भिन्न हं, पर दोनों का प्रयोग व्यवहार से है, फिर भी अभिप्राय निश्चय का है, और व्यवहार का है। कथन जो भी चलेगा, वह द्वैतरूप में मुख्यता व गौणता से चलेगा। अनुभूति इन्द्रियों की होगी, तो द्वैत होगी और स्वात्मा की होगी, तो अद्वैत होगी । इन्द्रियों का वेदन द्वैत है, स्वाद जिसका लिया जा रहा है और लेने वाला, यह द्वैत भाव है, परन्तु स्वादानुभूति
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