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समय देशना - हिन्दी
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नहीं । सुगंध होती पुष्प में, तो वह चारों तरफ अपने आप फैलती है। पं. दौलतराम जी कौन-से कॉलेज में पढने गये थे ? कौन से विद्यालय में आपने धर्म का अध्ययन किया ? अरे ! कपड़े बेचते-बेचते छहढाला बना लिया । आप कल्पना करो । गोपालदास बरैया मुंशी थे। उस जीव की रुचि बढ़ी तत्त्व के प्रति, तो उन्होंने विद्वानों की बड़ी लम्बी पंक्ति खड़ी कर दी। उनके विद्यालय से मक्खनलाल शास्त्री जैसे विद्वान् निकले । पर उनकी दृष्टि ‘पंचाध्यायी' पर जाने से मुरैना- विद्वान् - परम्परा में, चतुर्थ गुणस्थान में स्वरूपाचरण चारित्र मानते है । अष्ट पाहुड में आ. कुन्दकुन्द सम्यक्त्वाचरण चारित्र कहते हैं। 'पंचाध्यायी' ऐसा ग्रंथ है, जिसमें अनंतानुबन्धी कषाय के अभाव में स्वरूपाचरण चारित्र लिखा है । पाँच प्रकार के चारित्र में स्वरूपाचरण कोई चारित्र नहीं है । (अधः करण रूप परिणाम काल में व ध्यान में श्रेणी आरोहणकर्ता जीव को स्वरूपाचरण अर्थात् स्वरूप में रमण होता है ।)
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आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने 'प्रवचनसार' जी में "चारित्रं खलु धम्मो " सातवीं गाथा की टीका में जो साम्य का कथन किया है, उसको लेकर लोगों ने विपर्यास कर लिया। उन्होंने कहा स्वरूपाचरण अर्थत् स्वरूप में आचरण करना, ये चारित्र है । लेकिन स्वतंत्ररूप से कोई स्वरूपाचरण नाम का चारित्र नहीं है । आ. जयसेन की टीका पठनीय है। सप्तम गुणस्थान से जो चारित्र है, वह सब स्वरूप में जाता हैं, स्वरूप में चरण है ।
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“यों है सकल संयम चारित, सुनिये स्वरूपाचरण अब " ||६/७ छहढाला ॥
इस प्रकार से सकल संयम को कहा, यानी व्यवहार - चारित्र सराग संयम चारित्र हो गया न । फिर श्रेणी आरोहण काल में चलता है स्वरूपाचरण । लेकिन वहाँ पर भी स्वरूपाचरण का अर्थ स्वरूप में चरण लगाना । स्वरूपाचरण कौन से नम्बर का चारित्र है? ये चारित्र नहीं है । ये कर-पटल है, इसमें रेखायें हैं। हाथ रेखा है, कि हाथ में रेखायें है ? यही कथन होगा हस्तरेखा, न कि रेखा - हस्त ।
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ध्यान दीजिए | चारित्र है - सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि सूक्ष्म साम्पराय, यथाख्यात । उसमें चरण करना इसका नाम है स्वरूपाचरण । मार्ग पर चला जाता है पथिक के द्वारा, लेकिन पथिक 'मार्ग' नहीं होता, मार्ग पर पथिक चलता है । चारित्र में चलने का नाम स्वरूपाचरण है। स्वरूपाचरण नाम का चारित्र आगम में नहीं है। कहीं हो तो बता देना । "सुनिये स्वरूपाचरण अब' वह कारण में कार्य का उपचार है । अब निश्चय चारित्र सुनो।
संयमाचरण छटवें गुणस्थान से प्रारंभ है, इसलिए उसमें प्रवृत्ति विभावरूप है। तो ७ वें गुणस्थान से स्वरूप में चरण हो भी सकता है, लेकिन संज्ज्वलन का मंद उदय होगा। फिर नमस्कार करूँ, स्तुति करूँ, वंदना करूँ, प्रतिक्रमण करूँ, तो विषकुंभ है। इसलिए वहाँ निज में आचरण कर रहे हैं, वह स्वरूप में चरण चल रहा है । पाँचों ही चरण स्वरूपाचरण हैं और परमस्वरूपाचरण यथाख्यात है ।
प्रश्न - प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर ने ही छेदोपस्थापना का कथन किया है जबकि शेष बाइस तीर्थंकर ने सामायिक - संयम का ही कथन किया है। क्या कारण है ?
उत्तर महावीर के शिष्यों के बारे में पूछने की आवश्यकता है नहीं, क्योंकि वक्र परिणामी हैं, अपनी चर्चा छोड़कर पर की चर्चा में लीन हो जाते हैं। और आदिनाथ के शिष्य अति भोले हैं। अति भोलेपन में संयम का पालन नहीं होता क्योंकि जिसने जैसा कह दिया, वैसा मान लिया। ऐसा क्यों किया ? उन्होंने कहा था, तो हमने कर लिया । अरे ! उनने कहा, सो नहीं करना। 'जिन' ने जो कहा, वह करना । 'चाहे
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