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समय देशना - हिन्दी
१६६ सत्य हैं । बाह्यप्रमेय की अपेक्षा से भेद है। गहरे में जाओगे तो गहरे में आओगे। भावप्रमेय में कोई जाने की बात करता नहीं, परन्तु भावप्रमेय में जाये बिना भव का नाश होता नहीं। जो-जो बातें हो रही हैं न, बाह्य प्रमेय में दौड़ रहा है जगत् । भावप्रमेय में नहीं पहुँचता । भाव प्रमेय में जायेगा तो तटस्थ होगा । बाह्य प्रमेय में चंचलता है । सामान्य द्रव्य, सामान्य गुण, सामान्य पर्याय, विशेष कुछ नहीं । विशेषणों में निज की विशेषता समाप्त होना प्रारंभ हो जाती है।
अपरिचित रहने में बड़ा आनंद है । न राग, न द्वेष । दिगम्बर मुनियों के विहार करने का क्या कारण है। मात्र एक कारण है विशेष जो अन्दर का है। नवीन-नवीन नगरों में रहोगे, तो राग-द्वेष नहीं आयेगा। जब तक परिचय का समय आयेगा, तब तक विहार कर जाओगे। प्रांत-के-प्रांत बदल देते हैं, नगर-के-नगर बदल देते हैं । चार या पाँच महीने का चातुर्मास, दो महीने ग्रीष्म/शीत की वाचना । बोले कि अपरिचित रहने से परिचय सुरक्षित रहता है, और परिचित रहने से, स्वपरिचय से अपरिचयपना प्रारंभ हो जाता है। और न मानो तो सौतेली माँ से पूछो, अथवा उस पुरुष से पूछो जिनकी दो पत्नियाँ हैं। भले ही आप चाहे दोनों पर बराबर अनुराग रखेंगे, लेकिन कही-न-कहीं कमी तो आती है। कमी आयेगी। ऐसे ही स्वपरिचय और परपरिचय में सौतेला भाव है । एक-दूसरे को सुहाते (पसंद) नहीं हैं। इसलिए ध्रुव सत्ता को समझना है, तो परभावों से निजभाव को भिन्न स्वीकारना पड़ेगा। 'आत्मस्वभावं परभावं भिन्नं'' इतना ही तत्त्व है।
ग्यारहवीं गाथा की टीका समझ लो।
भूतार्थ, सत्यार्थ, निश्चयार्थ, ये एकार्थी शब्द है । व्यवहार को भूतार्थ कहा है। व्यवहार को ही नहीं कहा, शुद्ध निश्चयनय के व्याख्यान में भी भूतार्थ, अभूतार्थ व्याख्यान में आयेगा। अपने स्वरूप की अपेक्षा से भूतार्थ है, पर रूप की अपेक्षा से अभूतार्थ है। इसी प्रकार व्यवहारनय स्वसमय की अपेक्षा भूतार्थ है, पर स्वरूप की अपेक्षा अभूतार्थ है। भूतार्थ यानी सत्यार्थ, अभूतार्थ यानी असत्यार्थ । असद् नहीं, असत्यार्थ । इन दोनों में अंतर है। शुद्धनिश्चयनय, अशुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा निश्चयनय भी दो प्रकार का है। निश्चय, शुद्धनिश्चय, अशुद्ध, अशुद्धनिश्चयनय ये चार नय हो गये । जैसे - कोई एक ग्रामीण पुरुष कीचड़ सहित पानी पीता है परन्तु जो नागरिक होते है, विवेकीजन कतक फल (फिटकरी) डाल कर निर्मल पानी पीते है | जो संवेदन रूप भेदभावना से शून्य पुरुष हैं, वे मिथ्यात्व, रागादि विभाव परिणाम से आत्मा का अनुभव करते हैं। वह भी वेदन कर रहा है । कैसी आत्मा को वेद रहा है, मिथ्यारूप, असंयम रूप, अचारित्ररूप, अज्ञानरूप वेद रहा है। सर्वाधिक जीव उसी में डूबे हैं। गली-गली में घूम रहे हैं। यह भी मिथ्यात्व अनंतानुबंधी की मंदता में आनंद लूट रहा है । नाचता है, गाता है, बजाता है, आनंद लूटता है। बिना सुख के रह नहीं सकता है। सुख आत्मा का धर्म है, और धर्म का कभी विनाश होता नहीं है। चाहे विषयरूप हो, इन्द्रियरूप हो, अतीन्द्रिय रूप हो। सुख त्रैकालिक है। जो विषय-कषाय में लीन है वह सुख की अनुभूति विषयरूप कर रहा है । और जो सम्यक्चारित्र से युक्त है, निर्विकल्प अतीन्द्रिय रूप है और कर्मातीत है, वह आत्मा से आत्मा का वेदन कर रहा है। सख गण कभी नष्ट नहीं होता। जैसे- श्रद्धागण है कि सम्यक गुण है ? उपचार से कह लो, कि सम्यक् गुण है, श्रद्धागुण है। जब सम्यक् गुण होता है तो सम्यक् श्रद्धा गुण है। और मिथ्यात्व श्रद्धा विपरीत में चली जाये तो मिथ्याश्रद्धा है। श्रद्धागुण ही मिथ्यात्व में डुबाये है। श्रद्धा समीचीन हो जाये, तो सम्यक् दर्शन हो जाये । आगम में बहुत गहरे उतर कर अध्ययन करना पड़ेगा, गहरे में उतरना पड़ेगा।
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