Book Title: Samaysara Samay Deshna Part 01
Author(s): Vishuddhsagar
Publisher: Anil Book Depo

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Page 192
________________ समय देशना - हिन्दी १७७ आपके यहाँ व्यापार में कोई व्यापारी पहुँचता है। उसे ऊँची गुणवत्ता की वस्तु दिखाते हो, जब नहीं लेता है तो सामान्य वस्तु दिखाते हो। इसी प्रकार हमारे आचार्यों ने कहा कि पहले मनिधर्म का व्याख्यान करना चाहिए, जब वह श्रावक मुनिधर्म को पालन करने में समर्थ न हो, तब श्रावक धर्म का व्याख्यान करना चाहिए । इस क्रम को भंग करके जो कथन करता है, वह दंड का पात्र है। इसी प्रकार से जैनदर्शन के परिभाषित शब्द है, वे जरूर बोलना चाहिए। अगर न समझें, तो सरल कर देना चाहिए । अन्यथा नया शिष्य यह समझेगा कि जो मेरी भाषा है, वही आगम की भाषा है। अरे! आगम की भाषा तेरी भाषा नहीं है। आगम से अपनी भाषा को निर्मल कीजिए, अपनी भाषा से आगम की भाषा को निर्मल करने की आवश्यकता नहीं है । आगम तो आगम है, आपको अलग से कहने की किंचित भी आवश्यकता नहीं है। ऐसा कहना भूल जाइये कि आगम की भाषा सरल होनी चाहिए। आगम की भाषा जैसी है, वैसी ही होना चाहिए। आपको अपनी प्रज्ञा से उसको समझना चाहिए। आगम पर कलम नहीं चलाना, वरना वह आज का आगम हो जायेगा। बात गहरी समझिये। फिर आप नहीं कह पाओगे। महावीर की वाणी है, प्रमाण नहीं दे पाओगे। क्यों? लोग कहेंगे कि आपकी लिखी हुई है। इसलिए आचार्य भगवंतों ने यह नहीं लिखा कि मैं लिखता हूँ। यह लिखा, कि मैं कहता हूँ।"वोच्छामी' लिखा है। 'लिखता हूँ' नहीं लिखा। 'कहता हूँ' मतलब जो पूर्व में कही है उसे कहता हूँ। मैं बताता नहीं हूँ, कहता हूँ | सर्वज्ञ ने जैसा कहा, गणधर परमेष्ठी ने जैसा कथन किया और तदनुसार आचार्य-परम्परा में चला आ रहा है। जीवादि सात तत्त्व भगवान ने भी कहे हैं, बनाये नहीं है। तव वागमृतं श्रीमत, सर्वभाषा-स्वभावकम् । प्रीणयत्यमृतं यत्, प्राणिनो व्यापि संसदि ।। स्वयंभू स्तोत्र ॥९७॥ आचार्य समन्तभद्र स्वामी कह रहे हैं, हे प्रभु ! आपके वचनामृत हैं, वह सर्वभाषामयी है।और जगत में जितने पीड़ित प्राणी हैं, वह अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते हैं। इसलिए समन्तभद्र स्वामी ने भगवान् की वाणी को सर्वभाषामयी ही स्वीकार किया है। अनक्षरी क्यों कहा? ध्वनि रूप होने के कारण । वर्ण रहित होने पर भी सर्वभाषामयी है। क्योंकि भगवान् की भाषा में सर्वभाषा समाहित है। गणधर परमेष्ठी झेलते हैं, और गुंथन करते हैं। जीवमजीवं दव्वं जिणवरवंसहेण जेण णिद्दिढ । देविंदविंद वंद, वंदे तं सव्वदा सिरसा ।।१।। द्रव्य संग्रह। इसलिए अपन को उभय आचार्य की बात मानना है । जीव आदि तत्त्व जिनेन्द्रदेव ने कहे हैं। आप लिखें तो यह न लिखें कि मैंने कहे हैं, मैं कर्ता हूँ। आप कर्त्ता नहीं हो, व्याख्याता हो सकते हो । तत्त्वों का कर्ता कौन होगा? बनाये किसने? सर्वज्ञदेव ने भी कहे ही हैं, बनाये नहीं हैं और जिस दिन सर्वज्ञ बनाने लग जायेंगे, मैं तो नमस्कार नहीं करूँगा, आप भले ही करना । वे सर्वज्ञ नहीं बचेंगे, कर्त्तावादी हो जायेंगे । जो किया जायेगा, वह सत्य हो जायेगा, क्यों कि सत्य तो ध्रुव होता है । कितना स्वतंत्र दर्शन है, जिसमें परमात्मा तक को कर्त्ता स्वीकार नहीं किया जाता। कर्ता यः कर्मणां भोक्ता, तत्फलानां स एव तु । वहिरंतरुपायाभ्यां, तेषां मुक्तत्वमेव हि ॥१०॥ (स्वरूपसंबोधन) पोग्गल-कम्मा-दीणं, कत्ता ववहारदो दु णिच्छयदो। .... Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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