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समय देशना - हिन्दी
चेदणकम्माणादा, सुद्धणया सुद्धभावाणं ।।८।। (वृहद् द्रव्यसंग्रह) वे अशरीर भगवान् शुद्धनय से शुद्धभावों के कर्ता हैं । सर्वज्ञ सर्वथा अकर्ता भी नहीं हैं। वह अपने शुद्धभावों के कर्ता हैं व भोक्ता हैं । निज शुद्ध स्वभाव के कर्ता हैं, चैतन भाव के भोक्ता हैं। सर्वज्ञ संहारक है क्योंकि अष्टकर्मो का संहार करते हैं। तभी सर्वज्ञ बनते हैं। सर्वज्ञ रक्षक हैं, अपने स्वात्म चतुष्टय के रक्षक हैं। वे कर्ता भी हैं, वे संहारक भी हैं। लेकिन जैसा आप कहते हो, वैसे नहीं हैं। जैसे हैं, वैसे हैं। कैसे हैं, "जो सो दु सो चैव''। इसलिए स्याद्वाद वाणी में सब सिद्धियाँ हैं, पर एकान्तवादी के पास कोई सिद्धि नहीं है। आप कर्ता हो कि नहीं? हे मुमुक्षु! आप वर्तमान में तो परभावों के ही कर्त्ता हो, परभावों के ही भोक्ता हो। यह शरीर जिसमें आप विराजते हो, उसका कर्ता कौन है ? (शरीर) पर्याय का बंध पर्याय ने किया है न? यदि पर्याय में कर्ता-भोक्ता भाव है, तो मुनि बनना व्यर्थ हो जायेगा । क्यों? इसलिए कि पर्याय में बंध है, तो जब पर्याय यहाँ छूट जायेगी, तो उसमें बंध भी साथ में रह जायेंगे और पर्याय जलेगी तो कर्म भी जलेंगे, तो आत्मा शुद्ध चिद्रूप हो जायेगी। यदि ऐसा है तो फिर बंध किसमें है? मनुष्यपर्याय बंध कर रही है, कि मनुष्य पर्याय में पर्यायी बंध कर रहा है ? इस मनुष्यपर्याय में जो शुभाशुभ हो रहा है, वह पर्यायी कर रहा है कि पर्याय कर रही है ? पर्यायी कर रहा है, तो आप जो नवीनकर्म बंध कर रहे हो, जो अभिनव कर्म बंध हो रहा है, वह मनुष्य पर्याय को हो रहा है, कि मनुष्यपर्याय में विराजे जीव को हो रहा है ? यदि आप यूँ कहे कि मैं कर्त्ता नहीं, मैं भोक्ता नहीं, तो शुभाशुभ का कर्ता आपकी पर्याय है, तो जो बंध होगा, वह पर्याय में होगा । जो पर्याय में बंध होगा, पर्याय छूट जायेगी, तो बंध भी यहीं रह जायेगा। जब ऐसा हो ही जायेगा, तो कितना अच्छा होगा, फिर तो जो करना सो करो? क्योंकि पर्याय का बंध पर्याय में होता है, पर्यायी स्वतंत्र है, तो नरक में पड़ा रहेगा, तब भी स्वतंत्र है। फिर जायेगी क्यों? वह पर्याय पर्यायी से शून्य हो जायेगी और जब पर्याय पर्यायी से शून्य हो जायेगी, तो द्रव्यत्व का ही विनाश हो जायेगा । क्यों ?
"गुणपर्ययवद् द्रव्यम्" ॥३८/४ त.सू.।। द्रव्य बिना पर्यायों के रहता नहीं है, इसलिए तू नैयायिकवादी हो जायेगा। वर्तमान में जितने आपके मुमुक्षु जीव हैं, आप दर्शन को नहीं समझोगे, बातें तो करते रहोगे। जैन सिद्धांत कहेगा कि इसे मैं जैन नहीं मानता, आप जैन नहीं हो। इसलिए तू कर्ता है, भोक्ता है। जो-जो जीव होंगे, वे नियम से कर्त्ता, भोक्ता होंगे । चाहे वे शुद्ध हों, चाहे अशुद्ध हों। शुद्ध तो शुद्ध के कर्ता भोक्ता होंगे और अशुद्ध ही अशुद्ध के कर्ता भोक्ता होंगे, क्योंकि कर्तृत्व का अभाव जो समयसार में है, वह पर के कर्तृत्व-भोक्तृत्व का कथन है, निज के कर्तृत्व-भोक्तृत्व का कथन नहीं है। यहाँ भूल चल रही है कथन की। ईश्वरपन का खण्डन है, स्वकर्तृत्व का खण्डन नहीं है। मैं पर का कर्त्ता भोक्ता नहीं हूँ। पर मेरा कर्त्ता-भोक्ता नहीं है यह ध्रुव सत्य है। परन्तु मैं निज का भी कर्त्ता नहीं, निज का भी भोक्ता नहीं। तो फिर ईश्वर सिद्ध हो जायेगा, कोई-न-कोई होगा ? जब तू स्व का कर्ता-भोक्ता नहीं है, इसका मतलब, तू दिख रहा सामने, तो तेरा कोई दूसरा कर्ता है।
सदेव सर्व को नेच्छेत्, स्वरूपादि चतुष्टयात् ।
सदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यतिष्ठते ॥१५|| आप्तमीमांसा स्वचतुष्टय की अपेक्षा से, प्रत्येक द्रव्य सत है, पर-चतुष्टय की अपेक्षा से प्रत्येक द्रव्य असत् है।
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