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समय देशना - हिन्दी
૧૬૭ मुकुट बना लिया। यानी दो भेद खड़े हो गये, कुंडल और मुकुट । ज्ञान में पकड़िये। कुंडल, मुकुट, कि सोना ? सोना है। पर्यायों को गौण करके विशेषों को लेकर विशेषित हो जाता है और अवशेष को, अशेष को खो देता है। अशेष को अवशेष रखना है, विशेषों को गौण करके स्वभाव को ग्रहण करना है। प्रमाणाभास कुछ भी नहीं है । भाव प्रमेय में कोई भी प्रमाणाभास नहीं है । ज्ञान-सामान्य है । बाह्यप्रमेय में प्रमाण तो प्रमाण है और प्रमाणाभास प्रमाणाभास है। अब कहने की क्या आवश्यकता? तत्त्व में विराजमान कैसे होंगे आप? जो यह विषय चल रहा है, समझाने का कम है, समझने का ज्यादा है । देखो, जो आप नाड़ी देखना सीखे न, वह सीखे कम हो, समझे ज्यादा हो। सीखे हुये देखेंगे तो असफल हो जायेंगे। और समझे हुए जो देखेंगे, वे प्राणों की रक्षा कर देंगे, अकाल मरण से बचा देंगे। सीखनेवालों से नहीं मिलना । साधु और वैद्य इन सीखनेवालों से नहीं मिलता है, समझने वालों से मिलता है। जो सीख रहा है, घोड़ा उसे गड्ढे में पटक सकता है। जो समझ चुका है, वह संभाल कर ले जायेगा। आपको मालूम होना चाहिए कि कभी-कभी घुड़सवार को मार्ग मालूम नहीं होता। वह नकेल खींचता है, तब भी घोड़ा सही मार्ग पर ले जाता है। जो दिन-रात बैलगाड़ी पर जाते हैं, वे गाड़ी पर सो जाते हैं और वे बैल चलते रहते हैं, और ठीक स्थान पर जाकर रूक जाते हैं। वे समझ चुके हैं।
मोक्षमार्ग सीखने का मार्ग नहीं है, यह समझदारों का मार्ग है । सीखना चाहिए है ब्रह्मचारी आदि अवस्था में। पिच्छी लेकर तो समझदारी का, संभलने का मार्ग है। भाव प्रमेय, बाह्य प्रमेय, इनको जानने की क्या आवश्यकता है ? राग-द्वेष की हानि होती है। कितना दृढ़ श्रद्धान बन रहा है? जीव , स्त्री नहीं देखेगा, पुरुष नहीं देखेगा, कीड़े-मकोड़े आदि कुछ भी नहीं देखेगा । क्या देखेगा ? जीवद्रव्य देखेगा। सात तत्त्व में जीव नाम का तत्त्व है। पर्यायों को देखोगे तो परिणति बिगड़ेगी। द्रव्य सामान्य को देखोगे, तो परिणति निर्मल होगी। द्रव्य को देखना है,तो अपरिचित होकर परिचय में रहोगे, तो सत्य में जी पाओगे और अधिक समय अपने लिए दे पाओगे। जैसे कि आप अध्यापन कार्य करा रहे हैं किसी कालेज में, वहाँ आप विवेकशील हैं, तो विद्यार्थियों से अपरिचित रह कर उनको क्लास मात्र में अपना परिचय देना, बाकी अपरिचित रहना । हे ज्ञानी ! परिचय तो हो जायेगा, परन्तु तू अपरिचित रहेगा, जिससे समय बचेगा, और तू अपना परिचय स्वयं में लेता रहेगा। और यदि उनसे परिचय बढ़ा लिया, तब वे तेरे तन का परिचय लेने आ जायेंगे और तू मन की कहना प्रारंभ कर देगा, तो जो तेरा ज्ञान बढ़ रहा था, वह कम हो जायेगा। जैसे पंडितजी उपदेश करने गये बाहर, इतने गंभीर बैठे सभा में आकर कि तत्त्व का परिचय दे, स्वयं के परिचय से अप परिचय को अपरिचित रखो। तत्त्व बोध देकर आ जाओगे, तो आपका परिचय तो हो ही जायेगा। ज्ञानी ! आप अपने परिचय से अपरिचित नहीं रह पाओगे। और जहाँ हमने परिचय बढ़ाया, तो लोगों का आना प्रारंभ होता है, और जो समय आपको मिलना चाहिए था, वह पर में चला जाता है। निज का परिचय पर से अपरिचित रहने में ही होता है। पर से परिचित रहोगे, तों निज से अपरिचित होते चले जाओगे। जो-जो ज्ञानी पुरुष हुये हैं, वे प्रारंभ में अपरिचित होकर ही जिये हैं। क्योंकि विद्या का और पर-परिचय का संबंध बध्य और घातक का संबंध है। जैसे कि नकुल और सर्प । यह न्याय की भाषा का प्रयोग किया है । अंधकार में प्रकाश नहीं रहता, प्रकाश में अंधकार नहीं रहता। पर-परिचयों में स्वात्म परिचय नहीं होता, स्वात्म परिचय के काल में पर-परिचय नहीं होता।
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