________________
समय देशना - हिन्दी
१६५ भोजन करने की तैयारी है।
__ चतुर्थ गुणस्थानवर्ती को भी मोक्षमार्गी कहा जाता है, पर ध्रुव सत्य यह है कि छटवें गुणस्थानवर्ती को ही मोक्षमार्गी कहा जाता है । रत्नत्रय नहीं है चौथे गुणस्थान के पास । असंयत सम्यग्दृष्टि (अविरत सम्यग्दृष्टि) में अभी संयत शब्द नहीं आया। सिद्धांत की भाषा में कहें तो जब-तक सिद्धांत और चरणानुयोग का संयत नहीं आयेगा, तब तक संयमी संज्ञा नहीं होगी। द्रव्यानुयोग का भिन्न विषय है, वह गुणस्थानादि को गौण करके बोलता है। वह आपको वस्तुस्वरूप का ज्ञापक है, प्रापक नहीं है। यानी आपको इनआँखों से दूध में ही घृत का ज्ञान करा दिया अत: ज्ञापक । पर प्रापक तब ही होगा, जब पूरी क्रिया होगी । द्रव्यानुयोग शुद्धस्वरूप का ज्ञापक है कि स्वरूप ऐसा है, परन्तु प्रापक तो आपका चरणानुयोग, करणानुयोग है । करणानुयोग कहेगा कि इतनी प्रकृतियों का क्षय कीजिए, चरणानुयोग कहेगा कि यथाख्यात चारित्र को प्राप्त कीजिए, तो द्रव्यानुयोग कहेगा कि निगोदिया भगवान् आत्मा ज्ञापक है, जबकि प्रथमानुयोग केवल ज्ञान से युक्त समवसरण में विराजे अथवा सिद्धशिला पर विराजे भगवान् को ही शुद्धस्वरूपी कहेगा। पर प्राप्ति कौन करायेगा? कर्म की प्रकृतियों का क्षय कीजिए। कैसे करूँ ? यथाख्यात चारित्र को प्राप्त कीजिए, शुक्लध्यान को प्राप्त कीजिए, क्षपक श्रेणी का आरोहण कीजिए और शुक्लध्यान में लीन होइये । इतनी क्रिया हुये बिना जानने मात्र से प्राप्ति नहीं होती है। ज्ञप्ति है । दर्शनशास्त्र का ज्ञाता 'ज्ञप्ति' और 'प्राप्ति में अंतर न डाले तो दर्शनशास्त्र कैसा ? ज्ञप्ति ज्ञप्ति है, प्राप्ति प्राप्ति है। ज्ञप्ति यानी जानन क्रिया, प्राप्ति यानी उपलब्धि अर्थात् अनुभवन क्रिया।
लोग चतुर्थ गुणस्थान में ही संतुष्ट हो रहे हैं, बस इक्तालीस कर्म प्रकृतियों का नाम लेकर हम तो संवर व निर्जरा में लग गये। संतुष्ट मत हो। ये हो रही हैं, इन्हें कौन मना कर रहा है? इनसे मिल कुछ नहीं रहा है। साधकतम् करण चौथे गुणस्थान में शुद्धात्मानुभूति का निषेध है, आत्मानुभूति का निषेध नहीं है। अगर निषेध कर दोगे, तो सम्यक का अभाव हो जायेगा। 'आत्मानुभुति' शब्द लेकर निषेध प्रारंभ कर देते हैं । निगोदिया जीव को आत्मानुभूति होती है कि नहीं? प्रत्यक्ष होती कि परोक्ष? मति श्रुत ज्ञान को सिद्धांत में परोक्ष कहा है, इसलिए परोक्ष होती है। पर यह बताओ कि वह मति श्रुत ज्ञान होता किसमें है? ज्ञान आत्मा है, कि आत्मा में ज्ञान है? आत्मा से ज्ञान जाना जाता है, कि ज्ञान से आत्मा जानी जाती है ? भिन्न होकर जानी जाती है, कि अभिन्न होकर? प्रत्यक्ष से जानी जाती, कि परोक्ष से ? जो सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है, वह लोक को समझाने के लिए है, आपको समझाने के लिए नहीं है। जो सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है, वह आत्मा से अभिन्न है ध्यान रखना न्याय व दर्शन की अपेक्षा से वह प्रत्यक्ष है। प्रमाण क्या है? वृहद् द्रव्यसंग्रह, परमात्म प्रकाश, अष्टसहस्री।
जो सप्तम गुणस्थान है, स्वात्मानुभूति है वह प्रत्यक्ष है, कि परोक्ष? जिसे अध्यात्म में प्रत्यक्षानुभूति कहा जा रहा है, यथार्थ में सिद्धांत से वह भी परोक्ष है, क्योंकि मति श्रुत ज्ञान से विषय चल रहा है। परन्तु आचार्य-भगवान् ब्रह्मदेव सूरि ने 'वृहद द्रव्यसंग्रह' की और ‘परमात्म प्रकाश की टीका में प्रश्न किया शिष्य ने ये स्वात्मानुभूति कैसे ? प्रत्यक्षानुभूति कैसे ? सूत्र में 'आद्ये परोक्षम'' लिखा है । सत्य है । लेकिन इन्द्रियमन की सहायता के कारण परोक्ष कहा जाता है। प्रत्यक्ष क्यों ? अक्ष यानी आत्मा। आत्मा से परे ज्ञान नहीं होता है। इसलिए मति श्रुत है, वह भी प्रत्यक्ष है। अन्यथा स्वात्मानुभूति, शुद्धात्मानुभूति घटित नहीं
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org