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समय देशना - हिन्दी
चारित्र तीन चके की गाड़ी पर चल ।
वस्तु की स्वतंत्रता को समझो। जीना है तो जीते-जी, जीयो । जितने भी निषेक हैं, प्रत्येक निषेक पर ध्यान रखो, आज से । संयम के साथ जो जीता है, वह जीते-जी, जीता है। असंयम के साथ जो जीता है, वह मरते-मरते, जीता है। इसलिए आप संयमी के पास भी जायें, तो उन्हें ये याद न दिलायें कि स्वास्थ्य ठीक है न, क्यों ? तूने आत्मलीन योगी को शरीर में रख दिया। पूछना था तो यह पूछता, कि रत्नत्रय की साधना विशुद्ध है न ? असंयम में गया भी हो या योगी, तो रत्नत्रय को सुनकर जागृत हो जायेगा - अरे ! मेरी पहचान तन से नहीं है, मेरी पहचान संयम से है। अपनी पहचान बनाओ। संयमी का शरीर तो जनकजननी के निमित्त से बन सकता है, परन्तु संयम जनक- जननी से नहीं बना। उनके पास जाना तो रत्नत्रय
पूछा । द्रव्यश्रुत भावश्रुत नहीं बनता है । बोलते रहोगे, घूमते रहोगे, पर घूमना नहीं मिटेगा । शब्दों के जाल को बिखेरते रहोगे । भवातीत तभी होंगे, जब भावश्रुत बनेगा । जो भावश्रुत ज्ञान है, वह आत्मभूत है । जो शुद्धात्मा को जानते हैं, वह निश्चय श्रुतकेवली होते हैं । जो शुद्धात्मा को नहीं भाता, नहीं समझता, नहीं पहचानता, बाहरी विषय में द्रव्यश्रुत को ही जानता है, तो वह भावश्रुत को नहीं जानता । भाई के बेटे को भी तू बेटा कहता है, अपने बेटे को भी बेटा कहता है। दोनों बेटों की अनुभूति समान है क्या ? भाई का बेटा तेरे कंठ का है, निज का बेटा तेरी पत्नी के पेट का है। ऐसे ही, कागजों का श्रुत, भाई का बेटा है, और स्वानुभूति का श्रुत, स्वयं का संस्थान है। ये कागजों के सुख ने स्वानुभूति खो दी है। संवेदनायें नष्ट हो गईं । ज्ञानी शुष्क होते नजर आ रहे हैं। ऐसे ज्ञानियों को भीतर का ज्ञान नहीं है। यह पहचान तब होती है, जब आप तीर्थयात्रा में व्यवस्था में रहते हो, तो चुपचाप से अलग से खा आते हो। उससे श्रेष्ठ किसान है, जो मेढ़ पर बैठकर भोजन करता है, तब जो भी निकलता है, उससे कहता है - आओ, कलेवा कर लो। क्यों, ज्ञानी ! वह सिद्वांत कैसा था, जो एकान्त में पेट भरकर आ गया ? ये था मात्र शुष्क ज्ञान । क्योंकि इसने सम्पूर्ण श्रुतज्ञान को भोगवृत्ति में लगाया है और दूसरे ने ज्ञान को योगवृत्ति में लगाया है। दस के नोट को एक मंदिर में दान कर सकता था, पर वह मदिरालय से बॉटल लेकर आ गया। उसमें नोट का क्या दोष ? नोट का जैसा उपयोग किया, वैसा मिल गया। ज्ञान का क्या दोष ? परणति का क्या दोष ? तेरी भावनाओं का दोष है। ज्ञान तुझे मिल गया था, उसे तूने भोग में लगाया है और एक ने ज्ञान को निज में लगाया । आज घर जाकर निहारना कि हम अपने ज्ञान का उपयोग कैसे कर रहे हैं। जीते-जी जीना है, कि मरते-मरते ? अरे ! जीते-जी, जी लो । पर्याय के साठ साल निकल गये, पर जीते-जी, नहीं जी पाया । अमरबेल की तरह नहीं ना। जिस वृक्ष पर चढ़ जाये, उसे सुखा देती है और स्वयं हरी-भरी रहती है। कुछ अज्ञानी ऐसे होते हैं, जो पर के जीवन को बरबाद करके जीते हैं। यदि जीना है तो ऐसे जीना जैसे आम का वृक्ष जीता है। स्वयं भी
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ता है और कोई पक्षी घोंसला बना ले तो उसको भी जीने देता है। जीवन को नहीं खोता है, दूसरे के जीवन को सहारा देता है। ऐसा जीवन जियो कि तुम दूसरे को भी जीने दो। यही तो महावीर का संदेश है। जियो और जीने दो ।
॥ भगवान् महावीर स्वामी की जय ॥
ज्ञानियो ! तत्त्व का शाब्दिक ज्ञान अनेकानेक जीवों को है, लेकिन तत्त्वदृष्टि का होना कठिन है । शब्दों से वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन कर देना, इसका अर्थ समयसार का अनुभव नहीं है। समयसार की
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