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समय देशना - हिन्दी १५३ समय किसी के घर मत जाना। जब घाटा ज्यादा लगने लग जाये तो ज्यादा व्यापार मत बढ़ाना, तुरंत हाथ खींच लेना । जितना लग गया, उतना ही सही । कम-से-कम 'गरीब' संज्ञा कहलायेगी, कर्जदार नहीं कहलायेंगे । यदि अशुभ के दिनों में तुमने व्यापार बढ़ा लिया, तो गरीब तो थे ही, कर्जदार और हो जाओगे । जब अशुभ कर्म आते है, तो मुनिराज को भी कर्म सताते हैं। अपने ध्यान में होते हैं, पर उपसर्ग करनेवाला आ जाता है। कर्मों ने किसको छोड़ा ? वह कहता है कि आप कौन हैं ? मैं तीर्थेश को नहीं छोड़ता, तुमको भी नहीं छोडूंगा। पर मैं ईमानदार हूँ। बंध नहीं करोगे, तो मैं उदय में नहीं आऊँगा ।
जब योगी का सामायिक में मन नहीं लग रहा हो, उदास दिख रहा हो, द्रव्यभेष मात्र दिख रहा हो, स्वयं में अशुभ - अशुभ ही हो रहा हो, तो समझ लेना कि अशुभ आयु का बंध है। अशुभ कर्म के उदय में कष्ट आये, इसमें तो संयम और चारित्र है, सम्यक्त्व भी है। यह अशुभ जो उदय में आया, वह पूर्वकृत कर्म चल रहा है। लेकिन अशुभ कर्म के उदय में अशुभभाव ही होने लग जायें, तो पूर्वकृत कर्म के साथ भविष्य की आयुबंध की सूचना है। इसलिए साधना में मन नहीं लग रहा है, नहीं तो अशुभ के समय में भगवान् का नाम लेने के परिणाम होते हैं। "दुःख में सुमरन सब करें" यह तो लोकप्रसिद्ध है, पर जो दुःख में भी भगवान् का नाम न लेता हो, विश्वास रखना, अशुभ आयु का बंधक है। साधना के मार्ग पर आकर साधना की ओर दृष्टि नहीं जा रही है, इधर-उधर बात करने के परिणाम हो रहे हैं, छुपकर क्रिया को भंग करता हो, तो समझ लेना कि तेरी वह अशुभ आयु का बंध हो चुका है, जो संयममार्ग पर मायाचारी कर रहा है। तिर्यञ्च आयु का बंधक होगा तो मुनिदीक्षा लेने के बाद भी, इस संयम भेष में आकर के संयम में मायाचारी करेगा। जब सामायिक का समय होगा, तब सोयेगा। जो पर को सतायेगा, उसे भी उस कर्म का फल भोगना पड़ेगा ।
तत्त्व को अनुभव करके समझना। जिसने जैसा किया, वैसा भोगा । " होता स्वयं जगत परिणाम ।" आप अपने राग-द्वेष परिणामों के कर्त्ता हैं, पर के सुख-दुःख के कर्त्ता नहीं हैं। अपने सुख-दुःख का कर्त्ता मेरा ही राग-द्वेष भाव है, शुभाशुभ भाव है । निमित्त तो अनेक रूप में आ सकते हैं। पिता के रूप में भी आ सकते हैं, भाई के रूप में भी आ सकते हैं, पुत्र के निमित्त में भी आ सकते हैं, गुरु-शिष्य के रूप में भी आ सकते है। आज ही नहीं, भूत में भी ऐसा हुआ है, इतिहास उठाकर देख लो। चौथे काल में भी ऐसे व्यक्ति हुये, जिन्होंने तलवार गाढ़कर संकल्प लिया, कि जिनधर्म को नष्ट करना है, बदनाम करना है। उसने पहले दीक्षा ली और दीक्षा लेकर, मुनिवेश को बदनाम करने के लिए सम्राट की रानी के साथ अब्रह्म का सेवन किया और हिंसा भी की, जिससे सम्राट गुस्से में आकर चतुर्विध संघ को नष्ट कर दे। वह तो आचार्य ज्ञानी थे, उन्होंने उसी तलवार से दीवाल पर लिखा कि यह विधर्मी था, धर्म को बदनाम करने के लिए मुनिवेश धारण किया था। जीते जी तो राजा न मानते उनकी बात, तो धर्म की रक्षा के लिए पंचपरमेष्ठी का ध्यान कर अपघात कर लिया यह उत्कृष्ट समाधि नहीं इसे हीन समाधि कहते हैं। उन्होंने आत्मघात कर लिया अगर ऐसा नहीं करते तो सम्राट चतुर्विध संघ को नष्ट कर देता। यह चौथे काल में हुआ। हम इनको दीक्षा देते हैं, तो साल भर रख लेंगे, ऊपर से ही देखेंगे, फिर भी किसी के भीतर कोई नहीं बैठा है कि तुम किस दृष्टि से आये हो। क्योंकि चतुर्थ काल के आचार्य नहीं पकड़ पाये उसको, ऐसा भी हुआ है।
कर्म किसी भी काल में किसी का होता नहीं और कर्म किसी भी काल में किसी को छोड़ता नहीं । निमित्त किसी भी रूप में आ जायेगा। पुण्य भी अपना काम नहीं छोड़ता, पाप भी अपना काम नहीं छोड़ता। जब पुण्य प्रबल आता है, तो कषायी जीव भी धन्यधान्य से सम्पन्न देखे जाते हैं। क्योंकि पूर्व का पुण्य इतना
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