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समय देशना - हिन्दी गिर गया। पुरुषार्थ की कमी थी, इसलिए ऐसा हुआ । क्यों ? मुनिराज बन गये, सामायिक में बैठ गये, इसी बीच में कुभावों का बाल आ गया तो, भीतर जाने वाले थे, परन्तु बाहर रह गये। छोटा-सा बाल भी अंतराय डाल देता है। तनक-सी मन की अशुभ परिणति शुद्धात्म-स्वरूप में अंतराय डाल देती है। आपको तन के मुनि दिखते हैं, हमें मन में मन के मुनि दिखते है । मैं तन के मुनि के साथ मन के मुनि को देखता हूँ। जितना मन का मुनि रहता है, उतना ही मुनि होता है, शेष समय तन का मुनि होता है। मुझे लगता है कि मैं चारछः दिन ऐसी व्याख्या कर दूँ, तो तुम मुनि को नमस्कार करना छोड़ दोगे।
भावविरदो दु विरदो, ण दव्व विरदस्स सुग्गई होई। विसयवण रमणलो लो धरियव्वो तेण मणहत्थी ॥९९७।। मूलाचार।। मैं तो सत्य इसलिए कहता हूँ, तुम चल न पाओ तत्त्व पर, पर तत्त्व का कथन असत्य मत करना। सत्य कहते रहोगे, तो तुमको ठेस लगेगी, तो तुम बनने का पुरुषार्थ करोगे । जो भावों से विरक्त है, वही विरक्त है।
द्रव्यवृत्ति की सुगति नहीं होती,
जो विषय रूपी उद्यान में मन-हस्ति है, उसे ज्ञान-अंकुश से पकड़ लो। वह भाव-मुनि कैसा है? जिसमें मिथ्यात्व का मल नहीं है, जिसमें असंयम का शैवाल नहीं है, जिसमें कषाय का खारापन नहीं है, जिसमें राग की चिकनाई नहीं है, शुद्ध शीतल पाताल नीर है तो वह भाव-मुनि है। यह सब लिखा है, कि आत्मा ही ज्ञान है, आत्मा ही आत्मा है, जो सम्पूर्ण दु:खों से मुक्त होता है। ‘‘पाबदि अचरेण कालेण" जो नित्य उद्यत रहता है, ऐसा मुनि।
यह ग्रंथ मुनियों के लिए है। आप सुन सकते हो समझ सकते हो, लेकिन अनुभव इस ग्रंथ का किसके लिये है? तपोधन, तपस्वी मुनि के लिए है । वो सम्पूर्ण दुखों से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं, निश्चयव्यवहार रत्नत्रय भावना की दो गाथाओं के द्वारा चौथा स्थल समाप्त हुआ। || भगवान् महावीर स्वामी की जय ॥
qa आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ‘समयसार' ग्रंथ जी में, परम तत्त्व के रहस्यों को उद्घाटित कर रहे हैं। कल आपने देखा, कि करुणा भी अकरुणा है। 'पर' पर की गई करुणा निज पर अकरुणा है निश्चय से, क्योंकि करूणा से शुभास्रव ही होगा, उस शुभास्रव से स्वर्ग ही जा पाओगे, मोक्ष नहीं। सम्यग्दृष्टि जीव की करुणा परम्परा से मोक्ष का कारण है, परन्तु मिथ्यादृष्टि की करुणा संसार ही का कारण है। सिद्धांतदृष्टि से देखें तो प्रशम, अनुकम्पा, संवेग, आस्तिक्य सम्यग्दृष्टि के ही घटित होते हैं, मिथ्यादृष्टि के नहीं, ऐसा विद्यानंद स्वामी ने 'श्लोकवार्तिक' में कहा है । पंचाध्यायीकार ने प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य ये मिथ्यात्वी में भी घटित किये हैं। परन्तु विद्यानंदस्वामी ने तर्क के साथ खंडन किया है इस बात का । बोले कि ऐसा नहीं हैं। क्योंकि किसी जीव को आस्तिक्यपना है, पर यह अस्तिक्यपना है किसके प्रति? अनंतानुबन्धी कषाय के सद्भाव में जो आस्तिक्य भाव है, वह मिथ्यात्वरूप ही है, सम्यक्त्वरूप नहीं है। प्रशम यानी शान्त बैठा है कोई जीव और अनंतानुबंधी के साथ है, तो इतना ध्यान दो, क्रोध कषाय का उपशम मात्र उपशमभाव नहीं है। लोग पकड़ते क्या हैं? चार कषायों में क्रोध स्पष्ट दिखाई देता है, पर क्रोध कषाय का उपशमन-मात्र
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