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समय देशना - हिन्दी
१४० उतना ही सत्यार्थ कहना । अपने निर्णय को सत्यार्थ कहने का त्याग कर देना, यदि शुद्ध सम्यग्दृष्टि हो तो। अपने द्वारा अनुभव किये हुए आगम के विषय पर सत्यार्थ मत नहीं देना । आगम में जितना लिखा है, उतना ही सत्यार्थ है। व्यक्ति की स्वतंत्र सत्ता का विनाश कहाँ हुआ? स्वतंत्र सत्ता है कि आप सत्य को जान नहीं पा रहे हो । आगम को जानोगे तो अपनी ही सत्ता से जानोगे । जिसे जानोगे, वही स्वतंत्र सत्ता है । आगम परतंत्र कहाँ बना रहा है ? वह परतंत्र नहीं बनाता जो आगम स्वतंत्रता का ध्यान कराता है। स्वतंत्र सत्ता का ज्ञान आगम में नहीं मिलता, तो जितनी स्वतंत्रता से आपके सामने बोल रहा हूँ, वह सब बोल नहीं सकता था | आपने देखा होगा कि लोग लपेट-लपेटकर बोलते हैं। पर आज तक मैंने कोई लपेटकर नहीं बोला, पर यूँ कह दिया कि भ्रम से नहीं बोल रहा हूँ। क्योंकि आपका निर्णय झूठा हो सकता है, पर आगम का निर्णय झूठा नहीं हो सकता।
जिव्हा के जिस स्थल पर नमक का स्वाद लिया जाता है, उस स्थल पर मिश्री का स्वाद नहीं लिया जाता। आप मिश्री की एक डली कण्ठ के समीप रखना। बताओ स्वाद कैसा है ? अन्दर चला जायेगा, लेकिन मिश्री का स्वाद नहीं ले पायेगा । क्यों ? दाँतों के पास में जिह्वा की नोक पर स्वतंत्र प्रदेश हैं, उन प्रदेश पर स्वाद आता है। तेरी आत्मा में तेरी तन के साथ इतनी ही भिन्नता है। पाँच इन्द्रियों में आत्मा है कि नहीं? पाँच इन्द्रियों में आत्मा है। एक स्थान से ही सम्पूर्ण इन्द्रिय का स्वाद क्यों नहीं ले लेती? ज्ञानी ! प्रत्येक इन्द्रिय के प्रदेश स्वतंत्र हैं। अखण्ड ध्रुव्र आत्मा होने पर भी अनुभव तद्विषय का तद्थान पर ही आता है, भिन्न स्थान पर भिन्न का स्वाद नहीं आता है।
हे ज्ञानी ! शादी जिसकी हो रही है, दूल्हा वही कहलाता है और शादी की अनुभूति वही ले रहा है। शादी के समारोह में समाज खड़ी हो जाती है, पर स्वतंत्रता दूल्हे की है। ज्ञानी ! उपयोग जिस इन्द्रिय पर जाता है शेष सब इन्द्रियों का उपयोग हट जाता है। एक समय एक ही काम | जब कर्ण-इन्द्रिय का उपयोग होता है, तो आत्मा के सम्पूर्ण प्रदेश कर्णेन्द्रिय के साथ हो जाते हैं। जिसका पलड़ा भारी होता है, आप वहीं पहुँच जाते हैं। ऐसे ही जिस इन्द्रिय का कार्य प्रारंभ हो गया है, तब सभी इन्द्रियाँ उसमें ही तन्मय हो जाती हैं। जैसे ही वहाँ से हटा ,तब दूसरी जगह पहुँच जाती हैं।
जब आप अब्रह्मरूप में परिणति करते हो, तब उन आत्मप्रदेशों को वैसा आनंद होता है । वही परमानंद शुद्ध स्वरूप में विराजमान होता है, तब इन्द्रियाँ सभी बैठी रह जाती हैं और उपयोग तन्मय हो जाता है।
"अर्पितानर्पिता सिद्धे" महावीर जयन्ती के दिन तेईस तीर्थंकर का पता ही नहीं चलता कि कहाँ हैं, क्योंकि प्रधानता महावीर स्वामी की है। जिस दिन तुम सबसे रहित होगे, उस दिन 'जिन' से सहित होगे। जब तक इनसे रहित नहीं और जिन से सहित नहीं, तब-तक परावर्तन चल ही रहा है । आप यहाँ सुन रहे हो न, यह भी सुकृत है, पुरुषार्थ है। सत्य को सुनने आये हो, कभी-न-कभी यह उदय में आयेगा। शुद्ध समरसी भाव को, परभाव की मिलावट की जरूरत नहीं है। इसमें जो लिप्त हो जाता है, वह पर से अलिप्त होता है। रसवंती को चखने पर द्वैतभाव होता है। रस-रस को पीने पर अद्वैतभाव होता है। रसवन्ती यानी जलेबी। उस जलेबी में आटे का स्वाद साथ में चलता है, पूरा स्वाद नहीं आता है, जो शुद्ध रस शुद्ध का स्वाद देता है। ऐसे ही भक्ति आदि व्यवहार-धर्म है, जलेबी का स्वाद है। जो निश्चय शुद्धात्मा का स्वभाव है, वह शुद्ध रस का स्वाद है।
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