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समय देशना - हिन्दी
१३६ कमाई करके हृदय को काला किया है । आज शांति से चिन्तन करो। जितना काला लेकर आया हूँ, ये ज्ञानभाव से लाया हूँ। और गलत करके लाया हूँ , अज्ञानभाव से नहीं लाया हूँ | सत्यार्थ बताऊँ आपको जिनवाणी के रहस्य बताये नहीं जाते हैं। आपको जानने के लिए समय ही नहीं है, कि कैसे यहाँ भटकतेभटकते आये हैं। व्यक्ति की दृष्टि अर्थ की ओर बहुत बढ़ चुकी है। अर्थ को छोड़कर मैं अनुभव कर रहा हूँ। जो अर्थ को छोड़ भी देते हैं, वे भी अर्थ को पकड़ नहीं पाये, फिर उसी अर्थ की ओर दौड़े । तत्त्वार्थ यानी तत्त्वभूत जो अर्थ है, उसके लिए मुनि बनना पड़ता है। पर उस अर्थ को समझ नहीं पाये, घुमा-फिरा कर, रूप बदलकर उसी अर्थ में आ जाता है। इस जीव ने जान लिया, परन्तु शब्दों में जाना।
परमाणु होता है, परन्तु आँखों से दिखता नहीं है। दो प्रकार के परमाणु हैं, द्रव्य परमाणु और भाव परमाणु । तीसरा परमाणु होता है, पुद्गल परमाणु । आपने 'पंचास्तिकाय' ग्रन्थ में पढ़ा है द्रव्यपरमाणु व भावपरमाणु । जो निजस्वार्थानुभूति व निजस्वात्मानुभूति है, वह भाव-परमाणु है । जो व्यंजनानुभूति है, वह द्रव्य-परमाणु है । ध्यान दो भाव-परमाणु द्रव्य-परमाणु को नहीं पा पाया । ये पुद्गल परमाणु की चर्चा नहीं समझना । यहाँ आत्मा को ही परमाणु की संज्ञा दी जा रही है। जो शुद्धात्मतत्त्व है, वह निश्चय से भावपरमाणु है। भाव-परमाणु को जीव नहीं पा पाता, तो पुद्गल पिण्डों में फिर से खड़ा हो जाता है। इसमें दोष किसका ? विश्वास रखना, दोष आपके पुरुषार्थ का ही है।
इस पेन का रंग किसी को काला, किसी को नीला दिख रहा है। जितनी दूरियाँ बढ़ती जाती हैं, विषयवस्तु का ज्ञान घटता जाता है। हमारे वर्द्धमान को गये ढाई हजार वर्ष हो गये। आचार्य विद्यानंद स्वामी ने 'अष्टसहस्री' ग्रन्थ लिखा, वे आचार्य 'श्लोक-वार्तिक' ग्रन्थ में कह रहे हैं, कि खुली आँखों से, चश्मा लगाने पर भी, तू सत्य को नहीं जानता। सत्य का व्याख्यान आप नहीं कर पाये। क्यों नहीं किया ? व्यवहार चल रहा है, उसे चलाते जाइये, लेकिन सभी के नेत्रों के नम्बर एक-से क्यों नहीं होते, ऐसा क्यों नहीं बोलते। अगर नहीं है, तो आपको कहना चाहिए कि जो मैं देख रहा हूँ वह सत्यार्थ नहीं है। आँख का नम्बर भिन्न है, वस्तु भिन्न है, दूसरे को दूर से काला दिख रहा था। इसलिए तत्त्व को अपनी बुद्धि से मत मापिये । आपका क्षयोपशम जैसा है. वैसा माप पाओगे तत्त्व तो जैसा है. वैसा है। कोई ये कहे कि पेन कैसा है? 'जैसा है. वैसा' कह देते तो पकड़े नहीं जाते। जब आपने एक भवन में बैठकर पेन को विपरीत रूप में जान लिया है तो सम्यक्त्व प्ररूपणा करना, यह संभव नहीं है । आकाश में विमान को उड़ते नहीं देखा क्या ? पर देखतेदेखते दिखता रहता है क्या ? जितना दूर चला जाता है, उतना दूर दिखता है। दिखता है, फिर नहीं दिखता, फिर एक काला सा बिंदु दिखता है। सत्य को दूर से नहीं देखा जाता, सत्य को समीप से देखा जाता है। ध्रुव आत्मा और तन उन दो के बीच आत्मा को देखना चाहता है दूरी बनाकर आप आत्मा को नहीं देख सकते, क्योंकि दूरी से पदार्थ सत्य नहीं दिखता। आज निर्णय हो जाना चाहिए। आँख के नम्बर बता रहे हैं, कि सबके द्वारा प्रत्यक्ष देखे जाने पर भी भिन्न-भिन्न दिखता है। व्यवहार चलाने के लिए सब व्याख्यान कर लीजिए, पर सत्य मानिये, आप इस पेन को परिपूर्ण रूप से नहीं जान रहे हो। फिर जो-जो क्षयोपशम हीनाधिक है, तो जितने निकट होते गये, उतना ही स्वच्छ दिखता गया। यह कैवल्य की सिद्धि है । जो निज ध्रुव आत्मा के निकट पहुँचता है, वह कैवल्य को प्राप्त कर लेता है। तब सारा चराचर जगत् प्रत्यक्ष दिखता है । जो दूरी रखता है निजात्मा से, उसे सत्य दिखाई देता नहीं है। इसलिए, क्षयोपशम ज्ञानियो ! इतनी करुणा करना, कि अपने द्वारा जानी हुई वस्तु का सत्यार्थ निर्णय नहीं दे देना । इस काल में जितना आगम में लिखा है,
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