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समय देशना - हिन्दी
१०८ हो आप? हित दृष्टि कम लोगों में होती है, अपनी आज्ञा के बहुमान की दृष्टि बहुत लोगों में होती है, कि देखो मेरी आज्ञा चलती है, डबल (दो गुनी) हिंसा, एक तो स्वयं के अहंकारमय परिणाम किये, दूसरे, दूसरे के परिणाम खिन्न किये । व्रतों का पालन करते हुए भी निर्वाण को प्राप्त नहीं कर पायेगा, जब तक तेरी चलती रहेगी। जिनदर्शन में धर्म की व्यवस्था सूक्ष्म है। आप अपने अनुचर को पैसे भी देते हो, भोजन भी देते हो, तब काम लेते हो, तब भी हिंसा हो रही है, क्योंकि जब भी वह एकान्त मैं बैठता है, तब सोचता है कि इनकी सेवा करना पड़ रही है। उसके भाव अशुभ होते हैं। यही कारण है कि निर्ग्रन्थ योगी, निर्ग्रन्थ दीक्षा लेकर एकान्त में वास करके स्वयं में निवास करते हैं। पद से बिल्कुल मोह न रखकर, न आदेश सुनना, न आदेश देना। स्वयं में लवलीन होकर परम अहिंसा को प्राप्त होते हैं। आत्मा अहमिन्द्र है। जो अहमिन्द्र होते हैं स्वर्ग में, वे न किसी की आज्ञा को पालते हैं, न देते हैं। वे अपने आप में अहमिन्द्र होते हैं। जिस दिन आप अपनी जीभ की तरह रहने लग जाओगे, उस दिन आप समाधि कर लोगे।
रसना इन्द्रिय से चक्ष इन्द्रिय ने कहा - मैं विश्राम लेती हूँ. आप मेरे विषय को देखते रहना । रसना कहती है चक्षु से - सुनो, मैं स्वतंत्र हूँ, तू स्वतंत्र है। मेरा काम चखना है, देखना नहीं है। इसी प्रकार किसी ने कहा - ऐसा काम कर लो। नहीं, मेरी दशा भिन्न है, तेरी दशा भिन्न है। विषय समझो, आप कहाँ-कहाँ भूल करते हो । बाद में सोचते हो। आप किसी साधु के पास पहुँचे थे माथे पर तिलक लगवाने । साधु सरल थे। इतना तुमने नगर में घुमा दिया, कि उनका सामायिक का समय नष्ट कर दिया । आपको तो मालूम ही नहीं था, आपको तो प्रभावना दिख रही थी। पर चारित्रमोहनीय कर्म का आस्रव जारी था, क्योंकि दूसरे के चारित्र की साधना में तुमने बाधा डाली। मालूम चला कि आप श्रीफल लिए आचार्यों के चरणों में घूम रहे हो, पर दीक्षा हो नहीं पा रही है। क्यों? जब तुम कर्म का चौक पूर रहे थे, तब पता ही नहीं चला। बहुत संभल के जीने की जरूरत है।
यह कषाय का अंश है। आपने अपनी धर्मपत्नी को समय पर भोजन नहीं दिया, उससे कहा कि इतना काम और कर लो. फिर खा लेना। त हिंसक है, कि नहीं? पत्नी का संबंध त्रैकालिक नहीं है, वह कुछ
य पहले हो गया था। पर वह जीवद्रव्य है। उसके साथ अनाचार करके बेचारी को समय पर भोजन नहीं करने देते। ये मत सोचना कि मेरी पत्नी है तो कर्मबंध नहीं होगा । जीवद्रव्य का हृदय कलुषित हो रहा है। उससे हिंसा का बंध ही होगा। पत्नी का दृष्टांत इसलिये दिया, क्योंकि पतिदेव समझते है कि पत्नी हमारी वस्तु है । हे ज्ञानी ! पर्याय के संबंध से तेरे घर की वस्तु हो सकती है, परन्तु जीवद्रव्य के संबंध से तेरे घर की वस्तु नहीं होती, वह स्वतंत्र है। ऐसे कितने-कितने काम किये। पिता पर भी आँख उठाई थी। वे आँखें नहीं थी, आँच थी। तूने पिता के पितृ भाव को झुलसा दिया।
क्या करूँ, भावश्रुत में दृष्टि नहीं जा रही है। जब तक भावश्रुत में दृष्टि नहीं जा रही है, तब तक भावना विशुद्ध हो ही नहीं सकती, ध्रुव सत्य है । सुनते-सुनते आपके चेहरे क्यों बिगड़ते हैं, ये प्रश्न है मेरा ? अध्यात्म कभी मूसलाधार नहीं बरसता, रिमझिम-रिमझिम बरसता है । मूसलाधार से फसल बिगड़ती है, रिमझिम से हरियाती है।
भावनाओं पर दृष्टिपात करो, किसी पर कषाय न हो। पर मन में कषाय बैठी है, ऊपर से शांत नजर आ रहा है, वह अंदर-ही-अंदर झुलस रहा है, जैसे कंडे की राख होती है। संयम धारण किया, फिर अंदर झुलसता रहा, मालूम हुआ कि प्राण निकल गये, परन्तु संयम की राख हो चुकी थी। इसलिए इतनी-सी बात
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