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समय देशना - हिन्दी
१०१ ग्रहण कर लिया । यहाँ शुद्धात्मा को ग्रहण किया गया है । यहाँ आत्मा का स्वभाव गुणस्थान, मार्गणा, जीवसमास नहीं है। यह तो विभावदशा है। अशुद्ध आत्मा में ही जब तक शुद्धात्मा का भान नहीं करोगे, तब -तक शुद्धात्मा को प्रगट करने के लिए पुरुषार्थ किसका ? जब-तक बीज में वृक्ष का ज्ञान नहीं है, तो बीज बोओगे क्यों ? भूल चल रही है व्यवहारपक्ष में और निश्चयपक्ष में भी भूल चल रही है। निश्चयाभासी बोरे में रखे बीज में वृक्ष उगा रहे हैं और व्यवहाराभासी बिना बोये बीज से वृक्ष उगा रहे हैं। हे ज्ञानी ! आपको बोरे में रखे बीज में वृक्ष को देखना पड़ेगा। बीज में वृक्ष है-ये शुद्धदृष्टि का काम है। पर बीज को जमीन में बोना व्यवहार-चारित्र का काम है। जब दोनों क्रियायें होंगी, तब फल आयेंगे। इतना तो ज्ञान एक किसान को भी होता है, फिर विसंवाद किसलिए? किसान बीज क्यों बोते हैं? उसमें उसको फसल दिख रही थी क्या? उसमें फसल नहीं थी क्या ? यदि नहीं जानता था, तो कंकणों को क्यों नहीं बोया ? इस द्रव्यदृष्टि, पर्यायदृष्टि एक किसान भी जानता है। व्याख्यान करना नहीं जानता है, शब्दों में बाँधना नहीं जानता है, पर ध्रुव सत्य है, द्रव्यदृष्टि के बिना खेती भी नहीं होती है, तो फिर भगवान् कैसे बनोगे? भूल कहाँ हो रही है ? द्रव्यदृष्टि से जानकर बीज को खेत में डाल नहीं रहे हो, परन्तु फसल खाना चाहते हो। 'समयसार' ग्रन्थ में 'बीज में वृक्ष है' कथन है। वृक्ष बनेगा कैसे? इसे जानने के लिये 'मूलाचार' के अनुसार चलना पड़ेगा । साधन का साधन तो श्रावकाचार है। भक्ति, भजन करने से मोक्ष नहीं मिलता, पर उसके बिना भी मोक्ष नहीं मिलता है।
जो श्रुत में गमन करता है, जो केवल शुद्धात्मा को जानता है, उसके लिए ऋषियों ने, श्रुतकेवली कहा है। व्यवहार कथन करते हैं। जो सम्पूर्ण द्रव्यश्रुत को जानता है, उसे ही जिनेन्द्रदेव ने श्रुतकेवली कहा है। निश्चय से, जो ज्ञान है, वह आत्मा में है, इसलिए आत्मा ही श्रुतकेवली है। जो सम्पूर्ण द्वादशांग को जानते हैं, वे श्रुतकेवली भगवान् कहलाते हैं। लेकिन जो द्वादशांग का ज्ञान है, वह आत्मा में है, इसलिए आत्मा ही श्रुतकेवली है। आधार में आधेय का उपचार कथन कितना स्पष्ट है। कथन में कमी नहीं है,। समझ में कमी है। सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्र कहाँ होता है ? आत्मा में । आत्मा ही रत्नत्रय है, या नहीं? इतना कह दिया और चलते बने । अब तुम भ्रमित हो, आपस में झगड़ो। अब मेरा प्रश्न है, कि दर्शन-ज्ञानचारित्र कहाँ होता है? आत्मा में/सम्यक्दर्शन आत्मा ही है न, गुण गुणी से भिन्न नहीं होता न, आत्मा ही है ? हे ज्ञानी ! वह कौन-सी आत्मा है? मिथ्यादृष्टि या सम्यक्दृष्टि आत्मा ? यही तत्त्व की भूल चल रही है । आत्मा सम्यग्दृष्टि नहीं, आत्मा मिथ्यादृष्टि नहीं। जिस नय से आप कह रहे हो, उस नय से न मोक्ष है, न बन्ध है। फिर पुरुषार्थ किसलिए कर रहे हो ? जब हम द्रव्य को निहारते हैं, पर्यायों को गौंण कर देते हैं। आत्मा पर-पर्यायों से भिन्नत्व-भाव से युक्त है। "आत्मस्वभावं परभाव भिन्नम्' इस सूत्र की व्याख्या के लिए कम-से-कम दस दिन चाहिए। आत्मा परभाव से भिन्न है, निजभाव से अभिन्न है, फिर भी विभावदशा में, परभाव में, लीन है । जो ये कह रहा है कि 'आत्मस्वभावं परभाव भिन्नम्', वह शब्द ही कह रहा है । तू विभाव में बैठा है, इसलिए बोल रहा है। स्वभाव में होता तो कहने की आवश्यकता नहीं थी। वहाँ तो आनंद लूटता।
मैंने प्रश्न किया कि जब सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्र आत्मा में है, आत्मा ही है, तो मिथ्यादर्शन
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