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समय देशना - हिन्दी
६० नायक बनता है, वह निज का नायक नहीं है। जो परभावों के नायकपने का त्याग करता है, वह ज्ञायकभाव का नायक है। हम सभी किसके नायक हैं ? ज्ञायकभाव के । घर, कुटुम्ब, परिवार, पुत्र आदि के नायक नहीं हो, यह अज्ञान भाव है । मैं तो ज्ञायकभाव का नायक हूँ। तू पर का नायक नहीं है, तो दे दो चाबी, उतारो सब। ज्ञायकभाव के नायकपने में सब छूट जाता है, सब मुनिराज बन जाओगे। जैसे निश्चयनय से, अभेद रूप से अग्नि एकरूप है, जब भेद करते हैं अग्नि का, तो व्यवहारनय से जलाती है, तो दाहक हो गई। पचाती है तो पाचक हो गई। जब प्रकाश करती है, तो प्रकाशक हो गई। ये तो विषयभेद से अग्नि में भेद दिख रहा है। जब दर्श देंगे तो दर्शनस्वभावी, जाने तो ज्ञानस्वभावी, आचरण करे तो चारित्र स्वभावी, ये आत्मा के भेद हैं क्या ? ये तो विषय के भेद हैं, आत्मा तो ज्ञानस्वभावी है। कितने प्रकार से समझा रहे हैं कि आत्मा तो ज्ञायकस्वभावी है। अग्नि में भेद है कि जलाती है, पकाती है. प्रकाश देती है। ये अग्नि में भेद है कि विषय के भेद से भेद है? जैसे, विषय के भेद से अग्नि में भेद होते हैं, ऐसे ही व्यवहारनय से विषयों के भेद से आत्मा में भेद दिखते हैं, परन्तु आत्मा अभेद-ज्ञायक-स्वभावी है। स्त्री है, पुरुष है, नपुंसक है, क्या है ? ये बर्तनों के वर्तन का भेद है, आत्मा तो शुद्ध ज्ञायकस्वभावी है। लिंग भेद है, चिह्न भेद है, परिणाम भेद है, पर ध्रुव परिणामी में भेद नहीं है । यह अभेददृष्टि इस चित्त में प्रवेश कर जाये, तो जाये लोक से अब्रह्म/कुशील का नाम ही पलायन कर ।
लक्ष्यदृष्टि कमजोर पड़ रही है । लक्ष्यदृष्टि में क्रिया नहीं दिख रही, भावना दिख रही है । जैसे आपने लक्ष्य बना लिया कि लार्डगंज मंदिर के दर्शन करने जाना है, लेकिन पहुँचे नहीं। लक्ष्य है, आज भी जा सकते हो, कल भी जा सकते हो । लक्ष्य है, जाओगे । ध्यान दो, व्यवहार से इसे लक्ष्य कह देना, पर निश्चय से लक्ष्य नहीं है। अनुभूति है, अन्यथा लक्ष्य तो अप्राप्य का ही होता है। पकड़ो, लक्ष्य अप्राप्य का होता है, प्राप्य के लिए। (शब्दों में पूरे सिद्धांत भरे रहते हैं।) लक्ष्य तो अप्राप्य पर होता है, प्राप्य पर नहीं। प्राप्यी का लक्ष्य नहीं हो तो उसका वेदन होता है। जब मैं शद्धात्मानभति में लीन होगा, तो सिद्धों का लक्ष्य नहीं बनाऊँगा। ये भ्रम को निकालना कि शुद्धोपयोगी मुनि सिद्धों का ध्यान करते हैं या कि सिद्धों की अनुभूति करते हैं । असिद्ध होने पर भी अनुभूति शुद्धात्मा की ही करता है । कैसे करेगा ? कर्म-निरपेक्षभाव से, सिद्धांत अपेक्षा परोक्ष, अध्यात्म अपेक्षा प्रत्यक्ष, कर्म को गौण करके अशरीरी शुद्धात्मा में लीन है।
बोरे काआवरण बराबर है, पर परखी प्रवेश कर गई, कर्म का आवरण बराबर है, कोई विकल्प नहीं है । पर मैं कर्म को भेद करके अन्दर प्रवेश कर रहा हूँ, और अनुभूति ले रहा हूँ शुद्धात्मा की तत्क्षण में । व्यवहारिक दृष्टांत से समझ जाओ । कामिनी सामने है नहीं, परन्तु कामना अन्दर विराजी है। कामना से ही कामिनी को भोग रहा था, फिर भी धातु का क्षय हो रहा है। सिद्ध हूँ नहीं, सिद्धों की अनुभूति ले रहा है, उस अनुभूति से कर्मों का क्षय हो रहा है। बाहर नहीं जाना । दृष्टांत दृष्टा में चिपकने के लिए नहीं सुनाये जाते हैं। नहीं तो आप गर्त में चले जाओ। दृष्टांत दृष्टान्त के लिए सुनाये जाते हैं। वही दृष्टांत सुनाना चाहिए, जो दृष्टांत पर घटता होता है। यह कहाँ से बोल रहा है, आचार्य नागसेन स्वामी के पास प्रश्न किया। अरहंत तो होते नहीं. और आप ध्यान करनेवाले हो न पृथ्वीधारणा, वायधारणा, अग्निधारणा, जलीयधारणा, तत्त्वरूपधारणा, पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत ध्यान बाहर से निहारो तो सब कल्पना है। आप अरहंत की कल्पना करके ध्यान कर रहे हो, तो कल्पना है, समय निकाल रहे हो । लेकिन कल्पना से अकल्पनीय प्राप्त होता है । कैसे? टेंशन (तनाव) में आ जाओ तो नाक फूट जाती है। बाहर की गर्मी से
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