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समय देशना - हिन्दी
६४ पुद्गल का नहीं, जीव का है । जीव स्वाद चख रहा है।
अरे भाई! आगम को व्यवस्थित कहने में तुमको कौन-सा दोष लगता है ? और आगम को व्यवस्थित नहीं कहोगे, तो असमाधि नियम से है, समाधि नहीं होगी। आपके नगर में क्या होता है, उसे उसने नगर तक ही रखना, आगम की गद्दी पर नहीं सुनाना । देश की, प्रदेश की, घर-घर की परम्परायें भिन्न हो सकती हैं। मंदिर की प्रत्येक वेदी की परम्परा भिन्न हो सकती है, लेकिन आगम की परम्परा भिन्न नहीं हो सकती, इसलिए आगम व्यक्तिगत नहीं होता है, आगम व्यक्ति-व्यक्ति का होता है। आगम व्यक्तिगत हो जायेगा, तो हम किस-किस की बात मानेंगे ? जब व्यक्ति-व्यक्ति अपनी बात को कहने लग जाये तब फिर प्रमाण देखना पड़ता है।
श्वेताम्बर आम्नाय में एक बहुत बड़ा विकल्प है, इसी कारण से उनके यहाँ दो परम्पराएँ हैं, स्थानकवासी और मंदिरमार्गी । एक कहते है कि बत्तीस आगम हैं, दूसरे कहते है कि चउवन (५४) आगम हैं । अब कौन से आगम को प्रमाण कहा जाये ? फिर दोनों ही कहते हैं कि भगवान् महावीर की वाणी है। अरे महावीर को कलंकित मत करो। महावीर ने जो कथन किया होगा एकरूप में किया होगा। आप लिए, महावीर ने नहीं बनाये । आज मैं मध्यस्थ/तटस्थ होकर आपसे पूछू, तो आप जबाब नहीं दे पायेंगे। आप जैन हैं ? आप भगवान आदिनाथ व महावीर के शिष्य हो। ठीक है न? आप निर्वस्त्र को मानते हो, पर आपके जैनों में वस्त्रों को माननेवाले भी हैं, सही है न? आपके महावीर ने दिगम्बरों को जन्म दिया, कि श्वेताम्बरों को ? उत्तर दो। सत्य की खोज करो। ये पक्ष की गाँठ निकाल दो आज । बताओ कि आपके महावीर किस रूप में थे? दिगम्बर में। यह कौन कह रहा है? आगम कह रहा है। पर आपके जो श्वेताम्बर बन्धु हैं, उनसे पूछो कि कौन कह रहा है तो वह भी कहेंगे कि आगम कह रहा है। अब बताओ मैं किसको स्वीकार करूँ ? मेरी इच्छा है कि मैं जैनधर्म को स्वीकार करूँ। एक तटस्थ व्यक्ति पूछ रहा है कि आपमें सत्य कौन है ? यह सही है कि श्वेताम्बर भी महावीर को तो दिगम्बर स्वीकारते हैं, अन्य तेईस को नहीं स्वीकारते हैं। जैसे आज आप विकल्प में आ गये, मौन हो गये। अलग-अलग क्षयोपशम वाले साधु हुए, विद्वान् हुए, उन्होंने अपनेअपने क्षयोपशम से लिखना प्रारंभ कर दिया । पर आचार्यों ने यह कहीं नहीं लिखा, कि ऐसा मेरा मत है। उन्होंने यही लिखा कि सर्वज्ञ का मत है। अत: मझे मत मानो, सर्वज्ञ ही मानो। पर आज उल्टा शरू हो गया है,यानि जो मैं कह रहा हूँ वह सत्य है। तो आपने सर्वज्ञ को गौण कर दिया। और आपको मैं सर्वज्ञ बताऊँ तो मेरे सम्प्रदाय में कितने भगवान् बन जायेंगे । आज आपने एक आचार्य को मानना शुरू किया, तो दूसरे ने दूसरे को शुरू किया। लेकिन मैं तटस्थ होकर पूछ रहा हूँ, दोनों में सत्य आचार्य कौन है ? तुम अपनीअपनी कहोगे, मैं तटस्थ होकर चला जाऊँगा। क्यों? बोले आप सत्य नहीं हैं। जो सत्यता होती है, वह पक्ष से अतिरिक्त होती है, धारावाही होती है। पर आपके यहाँ आपस में ही विकल्प हैं। इसका मतलब है कि आप दोनों में से कोई एक असत्य है।
देखो, जिनवाणी समझने के लिए बहुत पुरुषार्थ चाहिए । तत्त्व-निर्णय करने के लिए भी बहुत पुरुषार्थ चाहिए । बहुत अच्छा हुआ जो इस वीतराग जिनशासन में व्यक्तिगत पूजा नहीं हुई । आज तक के इतिहास में आचार्य, मुनिराज की व्यक्तिगत प्रतिमा स्थापित नहीं हुई। यदि व्यक्तिगत प्रतिमायें प्रारंभ हो जायेंगी, तो मंदिर भगवान् से शून्य हो जायेंगे। हर साधक व्यक्ति कहेगा कि मेरी प्रतिमा होना चाहिए। संभल के रहना, समय ठीक नहीं चल रहा है, क्यों? पुतलों ने निज की पुतलियाँ खराब कर दी। इसलिए निहारिये, सत्यार्थ को जानने का पुरुषार्थ होना चाहिए। शुद्ध तत्त्व निराकार है, वही सिद्धस्वरूप है। इसलिए आपको
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