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समय देशना - हिन्दी
दर्द
के लिए नहीं रखा जाता, मुख में रखकर पेट भरने के लिए रखा जाता है। ऐसे ही ये 'समयसार' ग्रंथ मुख में रखने के लिए नहीं, ये मुख से मुख्य में ले जाने के लिए है। मुख्य कौन है ? आत्मा । सुनो आत्मा । आत्मा सुनती है ? कथंचित । जो अनुभूति में डूबी होती है, वह सुनती नहीं है, स्पर्श नहीं करती, चखती नहीं है । अनुभूति फिर भी लेती है। कहीं-न-कहीं लोगों ने तत्त्व को पकड़ने का प्रयास तो किया, पर बुद्धि के विपर्यास ने पकड़ने नहीं दिया । ध्यान दो, बिना पग के चलते हो, बिना कान के सुनते हो, बिना नाक सूँघते हो, बिना नेत्रों के देखते हो। पकड़ा तो है, लेकिन जो सिर पर बँधा मिथ्यात्व था, उसने पकड़ने नहीं दिया ।
पर क्या करे ? पकड़ा तो तन को है, तो तन में रहो, पर तन के मत रहो, क्योंकि तन में रहे बिना चैतन्य को प्रगट कर नहीं पाओगे। परन्तु तनके रहोगे, तो चैतन्य को प्रगट नहीं कर पाओगे । तन में रहो, परन्तु निमग्न चेतन में रहो ।
प्रमत्त - अप्रमत्तादि विकल्प, जीव के व्यवहारनय से पाये जाते हैं। परन्तु शुद्ध द्रव्यार्थिक (निश्चय) नय से नहीं पाये जाते हैं। तथा दर्शन - ज्ञान - चारित्र भी नहीं है, ऐसा सद्भूत व्यवहारनय से यहाँ कहते हैं । किसको ? ज्ञान को । ज्ञानियों के लिए ज्ञानी कौन है ? जीव है। आचार्य जयसेन स्वामी कह रहे है आप ज्ञानी हो। जैसा है, वैसा कहता हूँ मैं । क्षयोपशमदशा की अपेक्षा से अज्ञानदशा अवश्य है, परन्तु अज्ञानी नहीं है । वह कैवल्य का अभाव होने से अज्ञानदशा है, परन्तु ज्ञानतत्त्व का अभाव नहीं है। ज्ञानतत्त्व का अभाव हो जायेगा, तो चेतनत्व का अभाव हो जायेगा। चेतनत्व का अभाव हो जायेगा, तो जड़त्व हो जायेगा। जड़त्व हो जायेगा, तो जीवतत्त्व का विनाश हो जायेगा । तर्क शास्त्र से मिलो ।
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यत्र यत्र ज्ञानं, तत्र तत्र चेतना
ना ज्ञानत्वं न चेतनत्वं
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जहाँ-जहाँ अग्नि है, वहाँ-वहाँ उष्णता है । जहाँ-जहाँ उष्णता है, वहाँ-वहाँ अग्नि है । यह व्याप्ति है। आप सभी ज्ञानी हो, ऐसा जयसेन स्वामी कह रहे हैं। जितने जीव हैं, वे सब ज्ञानी हैं। आप सभी वक्ता हो । दो इन्द्रिय से वक्ता हो जाते हैं । अन्तर इतना है कि तत्त्व वक्ता कम होते हैं, बकनेवाले बहुत होते हैं । ये मैं क्यों कह रहा हूँ ? आज ये एक के पीछे दूसरे को भूल रहे हैं। जो-जो बोलते हैं, वे सब वक्ता हैं । ये विशुद्धसागर नहीं बोल रहे, जिनवाणी बोल रही है। दो इन्द्रिय जीव वचनबल से युक्त होता है। जिसके वचनबल है, भाषा पर्याप्ति है, वही वक्ता है । अब विषय यह है कि वक्ता बोलता क्या है ? यहाँ उपचार शब्द की जरूरत नहीं है, यहाँ जीव मात्र को ज्ञानी कह रहे हैं। जब हम कथन विशेषण जोड़ेंगे, सम्यक्त्व विशेषण जोड़ेंगे, तो मिथ्यादृष्टि अज्ञानी, सम्यग्दृष्टि ज्ञानी है। देशव्रती की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि अज्ञानी है, क्योंकि संयम को धारण नहीं कर रहा है। देशचारित्र को गौण करेंगे, तो महाव्रती ज्ञानी है, तू अज्ञानी है। ऐसा क्रम आगे भी लगा लेना चाहिए ।
तेरहवें गुणस्थान की अपेक्षा, पहले गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक को, अज्ञानी कहा है। पर उन गुणस्थानों में महान् महान् अन्तर है। सभी एक-से अज्ञानी नहीं हैं। ज्ञान गुण की अपेक्षा सभी ज्ञानी हैं ।
शुद्ध निश्चय नय से न ज्ञान है, न दर्शन है, न चारित्र है । मैं तो शुद्ध चैतन्य स्वभाव मात्र हूँ । ज्ञान भिन्न है, चारित्र भिन्न है, पर मैं ज्ञायक त्रिकालध्रुव हूँ । दर्शन, ज्ञान, चारित्र में संबंध है। सब ज्ञायक हैं, सभी नायक हैं। किसके नहीं हैं ज्ञायक के नायक । ज्ञाता दृष्टाभाव से पर- ज्ञेयों का मैं ज्ञायक हूँ । जो पर का
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