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समय देशना - हिन्दी यदि तुम यश कीर्ति लेकर आये हो, तो यहाँ पर भी यश मिलेगा । यतिसंघ में वैरागी बनकर आता, तो यह कहता, कि मैं विषयों की आशा का विसर्जन करने के लिए मुनिराज बना हूँ, अब मैं यह आशा भी नहीं करता हूँ, कि कौन कैसा कर रहा है । मैं तो इसलिए आया हूँ कि मुझे करना क्या है ? जो ऐसा विचार करेगा, वह कभी बाहर नहीं भागेगा, उसको गुरु भेजेंगे। और जो ऐसा विचार करके नहीं आयेगा, उसने भीतर देखा ही नहीं, बाहर ही देखा । विश्वास रखना, जगत में तनाव नाम की कोई वस्तु नहीं है । तनातनी नाम की वस्तु आ जाती है, तो तनाव आ जाता है । जब मन में आशा की तनातनी तन जाती है, तो तनाव की बस्तियाँ बसना प्रारंभ हो जाती हैं हृदय ग्राम में।
स्वच्छ चित्त वैराग्य से भरा होगा, तो चारित्र की अनुभूति आयेगी। नहीं तो विषयों की आशा है। सर्प को आपने बामी में प्रवेश करते देखा है। बिल में जाने से पहले वह इधर-उधर सिर मारता है, मुख मारता है, पर बिल मिल जाते ही वह सीधा बिल में जाता है। ज्ञानी ! तुम इधर-उधर मुख पटक रहे हो, तुमको बिल नहीं मिला, और चलना शुरू कर दिया। बिल नहीं मिला, इसलिए बिलबिला रहे हो। बिल मिल गया होता, तो कहाँ बिलबिलाता मिलता, सीधा अपनी वामी में निवास करता। ये चैतन्य बामी है, और सर्प इसलिए कहा - कि ये नाग केंचुली छोड़ने से निर्विष नहीं हो जाता है। हे मुमुक्षुओ ! वस्त्रों को उतारने से कोई निर्ग्रन्थ नहीं हो जाता है । जब-तक जहर की थैली नहीं निकलेगी, तब-तक सर्प निर्विष नहीं होता है । और जब तक विषय-कषाय रूप, वासना की थैली नहीं निकलेगी, तब-तक वह निर्ग्रन्थ नहीं हो पाएगा। पंचमकाल है, नहीं तो आप गलत अर्थ लगा लो। लोग अंगुली उठाने लग जायेंगे। गहरा तत्त्व है। 'समाधितंत्र में भी आचार्य पूज्यपाद कह रहे हैं, कि केंचुली के निकलने से सर्प निर्विष नहीं हो जाता, ऐसे ही वस्त्रों को खोल देने मात्र से कोई निर्ग्रन्थ नहीं हो जाता है। सामान्य तपस्वियों को पंचाचार नहीं होते, विशिष्ट तपस्वी को ही होते हैं। अवधिज्ञान भी ऋद्धि है । तपस्वी को आदर्श है कि एकान्त में रहना, गृहस्थों से दूर रहना।
_ 'यशस्तिलकचम्पू' में आचार्य सोमदेव लिखते हैं, क्या मैं नये साधु को श्मसान में ठहराऊँ ? नहीं, नये साधु हैं, भयभीत हो सकते हैं। उपवन में ठहराऊँ ? नहीं, बसंत का मौसम है, पुष्पों की सुगन्ध से मन चल जायेगा, तो संयम छूट जायेगा । तो नगर के समीप ले जाऊँ ? नहीं, नगर में कोलाहल है, ध्यान भंग होगा। तो नगर से दूर ठहराऊँ ? नहीं, नगर से दूर ठहराओगे तो ये हमारे बालमुनि हैं, शिक्षाशील हैं, ये भयभीत हो गये तो शिक्षा में बाधा आ जायेगी। फिर कौन-से स्थान में ठहराऊँ ? जो स्थान नगर से अधिक दूर न हो, नगर से अधिक पास न हो, ऐसे स्थान पर ठहराना । गृहस्थों के भवनों से दूर रखना, खाली मकान में रह सकते हैं।
जगत की टीका छोड़ो, टीका में आओ। आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी कह रहे हैं कि इस जीवलोक में, संसारचक्र के मध्य में आरोपित हुआ, कोई विश्राम नहीं लिया, यानी निरन्तर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव पंच परावर्तन किया।
एक परावर्तन कितना विशाल है । एक बार नहीं किये, अनंतबार किये ये पंच परावर्तन । यदि समयसार सुन रहे हो, तो इतनी-सी बात सुनकर चले जाना कि खाने-पीने को लेकर पुद्गल के टुकड़े के पीछे झगड़ा मत करना । रोटी के टुकड़ों पर घर में क्लेश हो रहा हो तो कहना कि ये श्वान भाव कब आ गये? रोटी के टुकड़े के पीछे तो कुत्ते लड़ते हैं।
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