________________
७६
समय देशना - हिन्दी उत्तर होता ही नहीं है । वह जो होता है, तब ये बुद्धि बगैरह सब गई। ये बुद्धि भी परभाव है । ज्ञायकभाव स्वभाव है। मैं ध्रुवसत्य बोल रहा हूँ। बुद्धि तो एकत्व वितर्क, शुक्ल ध्यान (बारहवें गुणस्थान) तक चलती है, परन्तु ज्ञायकभाव त्रैकालिक ध्रुव सिद्धालय में रहता है। इसलिए आप इतना समझ लो कि किसके पास जाना पड़ता है, श्रेष्ठ के पास कि अश्रेष्ठ के पास ? जो जिसके पास जाये, जो जाता है, वह छोटा होता है, यह मैं जानता हूँ।
आचार्य विद्यासागर ने प्रवचन किये, वह प्रवचन इतने मधुर हैं। क्या है कि दक्षिण में यह प्रश्न चल रहा है कि शांतिसागर बड़े हैं कि आदिसागर बड़े हैं। आचार्यश्री ने इतना सुंदर बोला, वह दक्षिण के लोगों ने सी.डी. मंगा कर रख ली है। आचार्यश्री बोले 'मैं यह नहीं जानता कि कौन छोटे थे, कौन बड़े थे, पर मैं इतना अवश्य जानता हूँ कि कौन किसकी समाधि में गया था। जिसकी समाधि हो रही थी, वह बड़ा था। अब-आप समझ जाओ कि समाधि किसकी हो रही थी। वह महायोगी न होता तो सल्लेखना में आचार्य शांतिसागर क्यों जाते?
___ अपने विषय पर आइये क्या प्रश्न था कि बुद्धि बड़ी है कि ज्ञायकभाव बड़ा है ? हे ज्ञानी ! बुद्धि जाती है ज्ञायकभाव के पास परम ज्ञायकभाव की सिद्धि के लिये। बारहवें गुणस्थान तक बुद्धि को दौड़े-दौड़े जाना पड़ता है। लेकिन ज्ञायकभाव कहीं किसी के पास जाता ही नहीं है। कौन बड़ा ? ज्ञायकभाव।
"ज्ञायकभाव स्वरूपोऽहम्" मैं कैसा हूँ ? परम पारणामिक, टंकोत्कीर्ण, परम ज्ञायकस्वरूप, आनंदकन्द, चेतन पिण्ड, अविसंवादी, ज्ञानघन, भगवती-आत्मा । और कैसा हूँ ? अखण्ड अपरिणामी ध्रुव स्वरूप हूँ | परभाव से अपरिणामी, निज स्वभाव में परिणामी, मैं तो आनंदकन्द चेतन पिण्ड हूँ। क्यों, मुमुक्षु! ये शब्द सुने थे ?
जैसे अग्नि जलने पर भी ईधन तोईधन है और अग्नि भी अग्नि है, ऐसे ही ज्ञेय आने पर भी ज्ञाता तो ज्ञाता है, और ज्ञेय भी ज्ञेय है। ज्ञाता ज्ञेय नहीं ज्ञायक होता है। इसलिए उसी अवस्था में जो ज्ञाता है, वह स्वरूप की दशा में है। जैसे दीपक परद्रव्यों को प्रकाशित करता है, परन्तु दीपक पररूप नहीं होता है। जो दीपक परप्रकाशी है, वह दीपक स्वप्रकाशी भी है। इसलिए ज्ञायकभाव स्व पर प्रकाशी है। कैसा? प्रदीपवत् । आत्मा कैसी है ? ज्ञायक स्वभावी है। जैसे कर्ता व करण अन्य होता है, कर्ता भिन्न है, करण भिन्न है, ऐसे ही कर्ता, करण, कर्म अभिन्न भी होता है। हम कर्म को जानते हैं, करण से जानते हैं, कर्ता जानता है। पर को एवं स्वयं को जानता है। मैंने घट को जाना । घट 'कर्म' है, मैं जानने वाला 'कर्ता' हूँ, जानन 'क्रिया है और ज्ञान से जाना 'करण' है । मैं 'प्रमाता हूँ, घट 'प्रमेय' है, जानना 'प्रमिति' है, ज्ञान 'प्रमाता' है। तो प्रमाता ने प्रमाण से प्रमेय को प्रमिति से जाना । एक भी शब्द अध्यात्म का नहीं है, धर्म का नहीं है, साहित्य का नहीं है । ये सम्पूर्ण शब्द न्याय के हैं । प्रमात, प्रमेय, प्रमाता, प्रमिति, ज्ञान, ज्ञेय, ज्ञाता, ज्ञप्ति ये अध्यात्म के हो गये। तो जब मैंने पर को जाना, तो क्या स्वयं को नहीं जाना? तो फिर आचार्य माणिक्यनंदि स्वामी क्या कहेंगे? अब मैं कहता हूँ अकलंक स्वामी महोदधी से रत्न को निकालकर , क्या कह रहे है? ये देखो प्राचीन आचार्यो को विनयभाव । बस, मैं यही निहारता हूँ। आज लोगों को डर लगता है कि मैं उनका नाम ले दूंगा, तो उनकी ख्याति फैल जायेगी। अरे ! उसकी फैले या न फैले, पर तुम्हारी जरूर फैल जायेगी । अरे, तेरे नाम लेने से ख्याति नहीं फैलती, यशः कीर्ति के होने पर फैलती है। अगर तेरे नाम लेने से ख्याति फैल जाये, तो दूसरे का नाम भले न ले, रोटी-पानी का नाम लेता है कि नहीं? उनकी ख्याति क्यों नहीं
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org