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समय देशना - हिन्दी भाव है। निज भाव तो ज्ञायकभाव है। ॥ भगवान महावीर स्वामी की जय ॥
aaa आचार्य-भगवान् कुन्दकुन्द स्वामी समय प्राभृत' ग्रन्थ में परम ज्ञायक स्वभाव की चर्चा कर रहे हैं। पर्याय का मिश्रण हमने अनंतकाल से अनुभव किया। लेकिन द्रव्यदृष्टि की अनुभूति जब तक नहीं होगी, विश्वास रखना, तब तक पर्याय की साधना पर्याय ही दिला पायेगी। परिणामों की साधना ही परमात्मा बना पायेगी। ध्यान दो, पर्याय की साधना सुंदर-सुंदर पर्याय तो दिला देगी, पर पर्याय की साधना परमात्मा नहीं बना पायेगी, जबकि परिणामों की साधना परमात्मा बनाती है। यदि आपने पर्याय से निर्दोष साधना कर भी ली है, तो स्वर्ग के देव तो बन जाओगे, परन्तु सिद्ध नहीं बन पाओगे। पर्याय की साधना कठिन नहीं है, पर्याय की साधना तो अभव्य भी कर लेता है।
सबहाद य पत्तेहि य रोचेदि य तह पुणोविर्यफासेदि य ।
धम्म भोगणिमित्तं ण दु सो कम्मखयणिमित्तं ॥२७५|स.सा.॥ श्रद्धान करता है, प्रतीति में आता है, अनुभवन करता है, स्पर्श करता है। किसको ? धर्म को। लेकिन धर्म भी किया, परन्तु भोगों के निमित्त से किया । उसने धर्म कर्म-क्षय के निमित्त से नहीं किया। इसलिए कुन्दकुन्द का राग भी तुम्हें कुन्दन नहीं बना पायेगा, समयसार का राग भी तुम्हें समयसार नहीं बना पायेगा। आचार्यों के प्रति बहुमान भाव तो लाना, सम्मान भाव तो लाना, सत्कार तो भाव लाना, लेकिन उनके राग में कर्त्ताभाव लाये तो वे तुम्हारे गुरु भी तुमको ऊपर नहीं ले जा पायेंगे। क्यों?
कषायैः रञ्जितं चेतः तत्त्वं नैवावगाहते। नीलीरक्तेऽम्बरे रागो, दुराधेयो हि कौंकुमः ॥१७|| स्वरूप सम्बोधन
कषाय से अनुरंजित चित्त है जिसका ऐसे चेतन को पदार्थ नहीं कहा, द्रव्य नहीं कहा, तत्त्व कहा है । यहाँ पर आत्मा को तत्त्व कह रहे हैं। जगत् के सम्पूर्ण तत्त्वों को तो तूने जाना, लेकिन आत्मतत्त्व को नहीं पहचाना । तत्त्व को तत्त्वदृष्टि से ही जाना जायेगा । अकलंक स्वामी स्वरूप सम्बोधन' ग्रन्थ में कह रहे हैं, कि जिस जीव का चित्त कषायों से अनुरंजित है, वह तत्त्व को प्राप्त नहीं होता। कैसे? जैसे नीले रंग पर कुमकुम का रंग नहीं चढ़ता, ऐसे ही धर्म-धर्मात्मा के निमित्त भी से किया गया कषाय (लोकधर्म छोड़कर बात करना) तेरे धर्म का घातक है, तेरे आत्मद्रव्य का घातक है। क्यों? हम जिसके निमित्त से कषाय कर रहे हैं. वह निश्चयधर्म तो हो नहीं सकता, व्यवहार ही होगा । उसे नष्ट होना है। सम्हलकर सुनना। किसी ने बेटे के गाल पर चाँटा मार दिया। अब ध्रुव सत्य है कि बेटे के गाल पर चाँटा लग चुका है। ये भी सत्य है कि जो पीड़ा थी गाल की, वह तो लगते ही वेदन की गई। अब गाल पर चाँटे की पीड़ा नहीं है, पर गाल जिसका है, उस आत्मा में कषाय की पीड़ा है। हे ज्ञानी ! आप चाहते तो उस बेटे को, इस धारा में भी बदल सकते थे कि बेटे ने पूर्व में किया था कर्म, जो गाल पर चाँटा लग गया। अब तू कर रहा कषाय, अब कहाँ लगवाना चाहता है ? पर जनक ऐसा विचारता नहीं है, जनक उल्टा क्या करता है कि बेटे के गाल के चाँटे का बदला चाँटे से ही लेना चाहता है। जबकि जो तेरा शत्रु है, वह भी तेरे आत्मधर्म से भिन्न है और पर सुख है, वह भी तेरे आत्मधर्म से
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