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समय देशना - हिन्दी मुझे ज्ञात हुआ है कुन्द-कुन्द स्वामी के माध्यम से। हे जीव ! तू अपने जीवत्वपने का भी कर्ता नहीं है। यदि तू जीवत्वपने का कर्ता हो जायेगा, तो तेरा जीवद्रव्य सादि हो जायेगा, अनादि सत्ता समाप्त हो जायेगी। जब तू जीवत्वपने का कर्त्ता नहीं है, फिर क्यों उसका राग अपने सिर पर ढो रहा है? यह मैं पूछ रहा हूँ आपसे, आपने अपने आत्मा को कब रचा ? नहीं रचा, तो फिर क्यों जगत में कर्त्ता बना घूम रहा है ? किसका भवन ? मेरी भवन । हे मुमुक्षु ! जब तू अपने आप का कर्ता नहीं है, फिर कैसे बना सकता है भवन ? उस ममत्व का त्याग करो। ईंट ईंट में है; चूना चूने में है। तू तो ध्रुवधाम ज्ञायकस्वभावी है। सुनने में, कहने में अच्छा लग रहा है, पर विश्वास रखो, इसकी परिणति में पसीना छूटता है। जो आपने पहनकर रखा है, उसको उतारे बिना तिरोगे नहीं, इसलिए उतार लो। पुरुषार्थ बाहर में नहीं, भीतर में है। तिरना है, तो उतारना पड़ेगा। ज्ञायकभाव को देखना नहीं है, जानना है । ज्ञायकभाव देखा नहीं जाता है । ज्ञायकभाव चाक्षुस नहीं है, ज्ञायकभाव अचाक्षुष होने से वेद्य है, फिर भी देखा जाता है । चर्म के चक्षु से नहीं, ज्ञान केअनुभव चक्षु से देखा जाता है । पर विश्वास रखना, तू ज्ञायकस्वभावी नहीं है । चाहे सम्यग्दृष्टि हो, चाहे मिथ्यादृष्टि, ज्ञायकस्वभावी नहीं है । ज्ञायकस्वभाव पर मिथ्यात्व नहीं है। ज्ञायकत्व स्वभाव पर सम्यक् नहीं है । सम्यक् मिथ्यात्व तेरे रागभाव पर है। ज्ञानी ! ज्ञायकभाव का ज्ञान हो जाये, तो सम्यक्दर्शन हो जाये, और ज्ञायकभाव को भल जाये तो बडे प्रेम से मिथ्यात्व में चला जाये। आपा पर का भेदविज्ञान जग जाये. सम्यक्त्व प्रगट हो जाये। तो आपा पर का भेदविज्ञान खो जाये, तो मिथ्यात्व प्राप्त हो जाये । कोई कठिन काम नहीं है, दृष्टि ही तो बदलना है। जिसे तू बेटों की माँ कहता था, उसे माँ कहने लग जाये, काम हो जाये । शब्दों में नहीं, जैसी माँ के प्रति अन्तरंग से श्रद्धा होती है वैसी श्रद्धा बना लो तो ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाओगे और यदि तू अब्रह्मभाव को प्राप्त हो जायेगा, तो ज्ञायकभाव चला जायेगा।
आज आदिनाथ स्वामी के चरणों में चले जाना, इतनी प्रतिज्ञा ले लेना कि मैं जगत् की सम्पूर्ण माताओं के आँचल का पान करने का त्याग करता हूँ। हे नाथ! मैं किसी माँ के गर्भ में न आऊँ, इतना आशीष चाहिए। पर सुनो, निगोदिया नहीं बन जाना, एकेन्द्रिय नहीं बन जाना, इतना ध्यान रखना । शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से मैं शुभ-अशुभ परिणामों से भिन्न हूँ। ज्ञाता यानि शुद्धात्मा जो कहता है, वह ज्ञाता ही है, पर का कर्ता भोक्ता नहीं है। क्यों? आप किसी का अपने जीवन में बिगाड़ या सुधार कर पाओगे क्या ? हे ज्ञानी ! बिगाड़ नहीं, सुधार नहीं, तो कर क्या पाओगे? राग-द्वेष भाव । हे जीव ! एक खेत पड़ा था, उसे आपने खरीद लिया तो कहने लगा मेरा है। कुछ दिन बाद बेच दिया, फिर भी बोलता है कि यह मेरा था। कुछ और आगे चला, यह खेत भी मेरा है। क्यों? लेनेवाला हूँ। वह भी मेरा, यह भी मेरा, पर, हे ज्ञानी ! वह पृथ्वी जो कुंवारी कन्या, उसने किसी को अपना पति स्वीकारा नहीं है। फिर ये कैसा व्यभिचारी है, जो उसे अपनी कह रहा है। यह प्रज्ञा का व्यभिचार है, राग का लेनदेन है, पृथ्वी का नहीं है। तू उठ जायेगा, मिट जायेगा, पर वह कभी उठेगी नहीं, मिटेगी नहीं, क्योंकि उसका नाम मिट्टी है। मिटती-मिटती भी न मिटे, उसका नाम मिट्टी है । वह तो तेरे तन को निज में मिला लेगी, पर तू अपने चैतन्य को उसमें नहीं मिला पायेगा। विश्वास न हो तो मरघट पर देख आओ, वह मिट्टी तुम्हें अपना लेगी। मोह की महिमा विचित्र है। कुटता है, पिटता है, फिर भी वहीं रहता है। सब जानते हैं। जितने मकान बनाये हैं, उनसे भी निकाल दिये जाओगे। इस मिट्टी के पीछे कितनी पर्यायों को मिट्टी में मिला डाला।
आगे आचार्य कहने वाले हैं, जिसके पीछे 'ज्ञान करना, ज्ञान करना' कह रहे थे, वह भी ध्रुवधाम
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