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समय देशना - हिन्दी
८३ ? तेरी अबला को छीन ले जाये, तुम घर में बैठो हो, तो वीर कैसा है ? यदि वीर हो, तो अवधपुरी को छोड़ दो
और अपनी विदेही से जाकर मिल लो। अन्यथा विश्वास रखना, ऐसा कलंक तेरे सिर पर लगेगा कि पर घर में तेरी नारी बैठी है और तू अपने घर में बैठा है, तेरे से बड़ा मूर्ख कोई नहीं है। कर्मगृह में बैठी तेरी नारी, वह विदेही, उसे तू नहीं देख रहा है। अरे ! उस लंकेश को भगा दो, अपनी विदेही को अपने घर ले आओ। विदेही देखना है तो इन विदेही को छोड़ना पड़ेगा।
आचार्य-भगवान् योगीन्दुदेव स्वामी परमात्म प्रकाश' में लिख रहे हैं हे मुमुक्षु ! जिसके नयनों में मृगनयनी विराजती हो, उसको ब्रह्म का विचार कैसे ? जिनके ब्रह्म विचार नहीं, उनके ब्रह्म की प्राप्ति कहाँ ? हे नर ! एक म्यान में दो तलवार नहीं होती हैं। ब्रह्म चाहिये है तो ध्यान दो, मृगनयनी को निकालकर आओ, इन नयनों से मृगनयनी का विसर्जन करो। द्वेष नहीं करना । ऐसा विसर्जन नहीं करना जैसे लोग नौ दिन प्रतिमा को पूजते हैं और दसवें दिन विसर्जन कर देते हैं। नदियाँ में विसर्जन का अर्थ है कि तुम जिसे मृगनयनी शब्द से पुकारते थे, उसे भगवान्आत्मा शब्द से पुकारने लगो। विसर्जन हो गया। मानस सरोवर से निकाल दो। तुम तो ध्रुवधाम ज्ञायकस्वभावी हो।
जिसे आप व्यवहार कहते हो, वह लोकाचार है। रत्नत्रय का भेदकथन व्यवहार है और रत्नत्रय की अभेददृष्टि निश्चय है। आप व्यवहार में क्या हो? विवाद में हो सकते हो, व्यवहार में नहीं हो, विश्वास रखना। इन्हें असद्भूत कहो, उपचरित कहो, अनुपचरित कहो, स्वजातीय कहो, विजातीय कहो, लेकिन, हे मुमुक्षु ! निश्चयनय से सब अभूतार्थ है । भूतार्थ एक चित्रवरूप ज्ञायकस्वरूप है । यह पेन है। किसका है ? मेरा है। मैं अपना कह रहा हूँ, फिर भी मिथ्यादृष्टि नहीं हूँ। परद्रव्य को निज कहना रागभाव । हे मुमुक्षु ! तुम यही गड़बड़ कर रहे हो । परद्रव्य को आत्मस्वभाव कहना मिथ्यात्व भाव है । परद्रव्य का विजातीय उपचरित असद्भूतनय से प्रयोक्ता हूँ, कर्त्ता नहीं इसका, हरता नहीं। ये निज में है, मैं निज में हूँ। यह पर है, फिर भी मेरा है, क्योंकि इसका प्रयोक्ता हूँ | कौन-सा नय? विजातीय। ये मेरी जीव जाति का है, 'उपचरित', क्योंकि उपचार लगा है। असद्भुत, क्योंकि मेरे से अत्यन्त भिन्न है। इसलिए उपचरित विजातीय असद्भूत व्यवहारनय से पेन मेरा है। अब समयसार की भाषा में बोलता हूँ, लगा लो व्यवहार, कर लो संतष्टी। मत कहना पेन किसका है ? मेरा ही है।
हे ज्ञानी ! लोक चलाने के लिए लोकव्यवस्था ही कर पाओगे, पर लोक को बदल नहीं पाओगे । मेरा शब्द पकड़िये । लोक चलाने के लिए लोक में लोक का राग ही कर पाओगे, पर लोक को बदल नहीं पाओगे। छः द्रव्यों के समूह का नाम लोक है, आकाश का नाम लोक नहीं है। आकाश, आकाश है और छः द्रव्य जहाँ रहते हैं, वह लोकाकाश है। इसलिए छः द्रव्यों के समूह का नाम लोक है। यह पेन भी एक लोक है। कौन सा लोक है? पदगल स्कन्ध है। मेरी आत्मा भी एक लोक है। वह कौन-सा लोक है? जीवलोक है।
एक-दूसरे में प्रवेश होने पर भी एक-दूसरे को अवकाश भी देते हैं। एक-दूसरे से व्यक्ति मिलते भी हैं, परन्तु अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं। हे मुमुक्षु ! आपने कह दिया कि पेन आपका है, और मैंने भी बड़े प्रेम से स्वीकार कर लिया कि हाँ, पेन मेरा है। पर, ज्ञानी ! ध्यान दो, मैं पेन के राग का ही कर्ता हो पाऊँगा । मैं पेन को निज की मान्यता का ही माननहार हो पाऊँगा, पर मैं पेन को अपना बनानेवाला त्रैकालिक नहीं हूँ । नय लगा लीजिए । लोक के भ्रमण की ही व्यवस्था बना पाओगे, पर लोकातीत नहीं हो पाओगे । तू तेरे जीवत्व भाव का भी कर्ता नहीं है, फिर पेन का कर्ता कैसा? आप किस-किस के कर्ता हो,
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