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समय देशना - हिन्दी
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का किंचित भी नहीं है। पीलापन तो डाले हुये रंग का है।
हे मुमुक्षु ! मेरी आत्मा तो त्रैकालिक ध्रुवधाम ज्ञायकस्वभावी है। जो पीले-लाल दिख रहे हैं, ये कर्म की उपाधि हैं । इनको गौण करके निहारो। मैं तो त्रैकालिक शुद्ध ही हूँ। क्यों, भटक तो नहीं रहे ? क्योंकि एक सज्जन बोले- महाराज ! आप दो-तीन दिन से जो बातें कर रहे हो, आपकी बात में व सोनगढ़ की बात में क्या फर्क है ? मैंने कहा- तू गढ़ को पहचानना जानता है, तत्त्व को पहचानना नहीं जानता । तत्त्व पहचान वाले होते, तो गढ़ न बन पाते। ये तत्त्व नहीं पहचान पाये, तो दोनों ने गढ़ बना लिये। एक ने व्यवहार तत्त्व को नहीं समझा, दूसरे ने निश्चय तत्त्व को नहीं समझा। अरे ज्ञानी ! पानी को एक क्षण के लिए पीला कहने में क्या जा रहा था ? कारण में कार्य का उपचार कर देते कि वर्ण पीला गिरने से पानी पीला दिखने लग गया है । फिर धीरे से कहते- 'ज्ञानी ! पानी तो पानी है, रंग ही पीला है।' तो ये गढ़ न बनते । न व्यवहार के पक्ष बनते, न निश्चय के पक्ष बनते । ध्यान दो
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धृतकुम्भाभिघानेऽपि कुम्भो घृतमयो न चेत् ।
जीवो वर्णादिमजीव जल्पनेपि न तन्मयः ॥ 40II स.सा. कलश ॥
घड़े में घी रखा होता है। ये बताओ कि कौन-से देश में घी का घड़ा बनता है ? लेकिन मैं सही न कह रहा हूँ तो बताओ, घी का घड़ा है ? हे ज्ञानी ! उन घड़ों में घी रखा होने से वे घी के घड़े कहला रहे हैं, पर घड़ा तो मिट्टी का ही है, यह व्यवहार है। घृत तो घृत है, कुंभ तो मिट्टी का है, यह निश्चय है। ऐसे ही
हऊ गोरो, हऊ साँवलो, हऊ पीलो
मैं गोरा हूँ, मैं साँवला हूँ, मैं मोटा हूँ, मैं दुर्बल हूँ, अरे अज्ञानी ! ये तन की दशा को देखकर चेतन को गोरा, पीला क्यों कर रहा है ? कौन गोरा ? आप वेदी का शिलान्यास करते हो, तो सोने की ईंट, चाँदी की ईंट । अरे ! ईंट तो मिट्टी की है, पर पैसा किसका ले रहा है ? सोने की ईंट का । अरे ! पीली पन्नी लगा दी, तो कहते कि सोने की ईंट बन गई, और चाँदी का बरक लगा दिया, तो चाँदी की ईंट बन गई। ज्ञानी ! ईट किसकी है ? मिट्टी की है। ऐसे हमारी आत्मा का ध्रुवधाम ज्ञायकस्वरूप है । यही समयसार है ।
अब आचार्य अमृतचन्द्र का दृष्टान्त सुनो। ज्ञेय में निष्ठ, ज्ञायक में प्रसिद्ध । ये लकड़ी है, इसमें आग लगा दी, आप देख रहे हो कि लकड़ी जल गई । हे ज्ञानी ! लकड़ी में अग्नि लगी अवश्य दिख रही है, पर लकड़ी अग्नि नहीं है, अग्नि लकड़ी नहीं है, पर अग्नि लगी है लकड़ी में। आप बोलते हो कि लकड़ी में आग लग गई, आप शुद्ध बोलते हो। यह नहीं बोलते कि अग्नि लकड़ी है। जो लगती है, वह होती है कि आती है ? आती है । अगर लकड़ी में अग्नि होती है, तो पकड़ो, हाथ जल रहे हैं ? जो भी लकड़ी को छुयेगा, उसके हाथ जल जायेंगे । दाहक स्वभाव लकड़ी का है कि अग्नि का है ? अग्नि लगती है, अग्नि होती नहीं है लकड़ी में। कषाय लगती है, कषाय होती नहीं है। आत्मा में कर्म होते नहीं हैं, आत्मा में कर्म लगते हैं। अग्नि होती है, लकड़ी अग्नि नहीं होती है। ऐसे ही ज्ञेय ज्ञान में होते नहीं, ज्ञेय ज्ञान में आते हैं । परन्तु ज्ञायकभाव होता है । ताकत किस पर लग रही है, सिद्धि किसकी चल रही है ? मात्र ज्ञायकभाव की । यही कारण है कि योगी ज्ञायकभाव मात्र को निहारते हैं। जब वे ज्ञायकभाव को नहीं देखते थे, तब वे विकल्पों में डूबते थे । जब वे ज्ञायकभाव को देखते थे, तब भगवान् - आत्मा में डूबते थे। जो आप प्रश्न कर रहे हो, यही परभाव है । निजभाव में प्रश्न होते नहीं हैं । ज्ञायकभाव तो है। इसे पूछा नहीं जाता, पहचाना जाता है । और जब हम पूछते हैं, तब ज्ञायकभाव की परिभाषाएँ समझते हैं, पर ज्ञायकभाव को नहीं समझते, क्योंकि ज्ञायकभाव का
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