________________
समय देशना - हिन्दी
४६ कभी तूने अनुभूति ली, जो लोक को विभक्त करनेवाला, आलोकित करनेवाला कैवल्य-शक्ति-सम्पन्न, जो एकत्व-विभक्त स्वरूप था, वही तेरा निज रूप था। परन्तु ऐसा एकत्वभाव सुलभ नहीं है, इस प्रकार से जानना। घर जाओगे? जाओ। बैल हो, तो जाना पड़ेगा, क्योंकि मोहग्राह पिशाच से तुम्हें खींचा जा रहा है बैल बनाकर । पर बैल फिर भी श्रेष्ठ है, क्योकि वह मौका पाकर छूटा तोडता है। पर ये कैसे हैं, कि अभी हम इन्हें छोड़ रहे और ये घर को जा रहे हैं। फिर भी ध्यान दो, जितना आप छोड़ रहे हो, उतना ही अच्छा, कम-सेकम सुन तो रहे हो, इतना जानना।
॥ भगवान् महावीर स्वामी की जय ।।
gga
तं एयत्तविहत्तं दाएहं अप्पणो सविहवेण ।
जदि दाएज्ज पमाणं चुक्किन्न छलं ण घेत्तव्वं ॥ ५ स.सा. ॥ आचार्य परम वीतराग भाव से तत्त्व-उपदेश दे रहे हैं। 'समय प्राभृत' ग्रन्थ अपने आप में अध्यात्म विद्या का
अदभत ग्रन्थ है। जैसे-कि दही को जितना मथा जाता है वैसे-वैसे मक्खन निकलता है: ऐसे-ही इस वीतराग स्याद्वाद वाणी का जितना मंथन किया जाये, उतनी तत्त्व की गहराइयाँ प्रकट होती हैं । लोक में मोह की गहराई का एकछत्र राज्य है। उस राजा के वशीभूत होकर यह जीव बैल की भाँति घूम रहा है। आचार्य कुंदकुंद स्वामी की - "सुद परिचिदाणुभूदा" की टीका करते हुए आचार्य अमृतचंद्र स्वामी ने कहा है कि -
ये विषय लोक में सुलभ हैं, पर एकत्व-विभक्त विषय कठिन है। आचार्य जयसेन स्वामी अपनी टीका में उसी बात को स्पष्ट कर रहे हैं। अनंत बार इस जीव ने सुना है, अनंतकाल से परिचित होता आ रहा है, अनंतकाल से अनुभूत है, किसका कौन? सम्पूर्ण जीवलोक किससे अनुभूत है, किससे परिचित है, किसे सुना है ? कामरूप भोग को। स्पर्शन, रसना ये दो इन्द्रियाँ कामेन्द्रिय हैं। अपने अन्तस् में पहुँचकर समयसार को समयसार से पूछो । अनंत पर्यायों को हमने काम, भोग की कथाओं की बलिपीठ पर बलिदान किया है। यदि एक पर्याय को ब्रह्मस्वरूप में लगा लेता, तो आज इस खोटे काल में जन्म न लेना पड़ता, जिस काल में संयमित स्वभाव की प्राप्ति करना अति कठिन हो रहा है। संयत मुद्रा धारण करके भी संयत मुद्रा न रख पाये, ये किसका दोष है ? दोष कुछ नहीं है, दोष कहना ही दोष है। दोष इतना मात्र है, कि कर्म सिद्धांत पर दृष्टि नहीं ले जा रहे हैं। कैसे ? मेरे लिए इन्होंने सताया। हे ज्ञानी ! यदि कोई तुझे कष्ट का निमित्त है, तो जगत में जितने भी जीव हैं, उन्हें कष्ट होना चाहिए। वही व्यक्ति अपनी पत्नी को सुख का साधन दिख रहा है, वही अपनी बेटी को सुख का साधन दिख रहा है, इसका मतलब क्या था ? कि वह व्यक्ति दुःख का साधन नहीं था, मेरे कर्म का विपाक मेरे दुःख का साधन था। वह हमारे लिए निमित्त क्यों बना ? क्योंकि उसके साथ मैंने पूर्व में अशुभ किया था । यदि वह व्यक्ति दुःख का कारण होता, तो उसे देखकर जगत के जीवों को दुःखी होना चाहिए था। आपने वर्तमान की पर्याय को तो देखा, परन्तु भूत की पर्याय में नहीं झाँका । भूत की पर्याय को देख लेता तो उस व्यक्ति को दोष नहीं देता। तेरा कितना प्रशस्त काल आया था, आँख खुले-खुले तेरा कर्म आया था। इस उदयकाल में आँख अन्दर की खोलकर देख लेता, तो अभिनव कर्मों को नहीं आने देता,
For Personal & Private Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org