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समय देशना - हिन्दी
७३ नहीं स्वीकारोगे, तो द्रव्यत्व घटित नहीं होगा । जहाँ द्रव्यत्व ही नहीं, वहाँ वस्तु क्या होगी? द्रव्य का लक्षण सत् है । उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य सत् है । गुण व पर्यायों से युक्त द्रव्य है । इन सबके होने के बाद भी द्रव्य परिणामी नहीं है। द्रव्य अपरिणामी भी है, हमने आपको पहले भी समझाया था। द्रव्य में भव्यत्व भाव भी है, द्रव्य में अभव्यत्व भाव भी है और यह भव्यत्व-अभव्यत्व भाव जीवद्रव्य में है। यहाँ भव्यत्व-अभव्यत्व से जीव भव्य-अभव्य है, वह ग्रहण नहीं करना । भव्यत्व यानी परिणमनशीलता और अभव्यत्व यानी अपरिणमनशीलता । द्रव्य कभी निजभाव से परभाव में नहीं बदलता, इसलिए अपरिणामी है। प्रत्येक द्रव्य निजस्वभाव में प्रतिक्षण बदलता है, नित्यकूटस्थ नहीं है, इसलिए परिणामी है। लेकिन यहाँ तो ज्ञायकभाव को ध्रुव अपरिणामी कह रहे हैं। आत्मा त्रैकालिक ज्ञायकस्वभावी ध्रुवअपरिणामी है। अपितु यूँ कहना चाहिए कि ज्ञायकभाव ध्रुव परिणामी है। ज्ञायकभाव का कभी अभाव नहीं होगा, इसलिए ध्रुव है। ज्ञायकभाव कभी परभावरूप नहीं होगा, इसलिए अपरिणामी है । परन्तु ज्ञायक-भाव में प्रतिक्षण नानारूपता का परिणमन है, अत: वह भी परिणामी है। इसलिए परिणामी भी है, अपरिणामी भी है।
जब मैं था निगोद में, तब भी मैं वेदक था, यह विषय भिन्न है। शुद्ध चेतना का न सही, अशुद्ध चेतना का वेदक था। कर्मफल चेतना, कर्मचेतना का भोक्ता तो था, वेदक तो था । वह वेदक भाव किससे था? ज्ञायकभाव था। जब मैं निगोद से निकला, पायी त्रस पर्याय, तब भी मैं ज्ञायकस्वभावी था। मेरे ज्ञायकस्वभाव में किंचित भी विपर्यास नहीं हुआ। जब मैं पंचेन्द्रिय असंज्ञी बना, तब भी ज्ञायकभाव था। वहाँ से निकलकर संज्ञी पंचेन्द्रिय हुआ, तब भी ज्ञायकभाव था और मनुष्य हुआ, तब भी ज्ञायकभाव था । जब तू बना योगी, उस समय भी ज्ञायकभाव था। उस योग दशा से उपयोग तेरा अयोग की ओर गया, तब भी ज्ञायकभाव था। लेकिन ध्यान रखना ज्ञायकत्व को निहारना । सामान्य अपेक्षा ज्ञायकत्व समान था, लेकिन विशेष अपेक्षा सबका ज्ञायकत्व भिन्न-भिन्न था । निगोदिया का ज्ञायक भिन्न है, क्योंकि विशेष धर्म है । वह पर्यायों को पकड़ता है और सामान्य तो धर्मद्रव्य को पकड़ता है। द्रव्य में दो परिणमन नहीं, द्रव्य में अनंत परिणमन हो रहे हैं, क्योंकि ये आत्मा अनंत गुणों का पिण्ड है, हर गुण अपने-अपने में परिणमन कर रहा है। इसलिए तेरे में उत्पाद-व्यय अनंतरूप हो रहा है, फिर भी एकरूप है । जब हम सातवीं गाथा पढ़ेंगे, इसका समाधान स्पष्ट मिलेगा। आत्मा में ज्ञान है, आत्मा में दर्शन है, आत्मा में चारित्र है। त्रिभेद है, पर त्रिभेद संज्ञालक्षण की अपेक्षा से है। परन्तु तीनों ज्ञायकभूत हैं। सम्यक् भी आत्मा में है। अनंत धर्म जो हैं, वह तो मुझे शिष्यो को समझाना पड़ता है, लेकिन धर्मी तो एक है। धर्मी समझ में आ जाये, तो धर्म समझाने की आवश्यकता नहीं है। परन्तु, ज्ञानियो ! जगत् के लोग धर्मी को नहीं समझ पा रहे हैं, इसलिए विसंवाद कर रहे हैं। जिन्हें अनंतधर्मो का स्वामी वह धर्मी समझ में आ जाये, तो विसंवाद समाप्त हो जाये। जैसे कान को देख रहा है तो सूपा कह रहा है, ढूंढ को देख रहा है तो मूसल कह रहा है, पूँछ को देख रहा है तो रस्सी कह रहा है। पैर को देख रहा है तो स्तंभ कह रहा है, पीठ को देख रहा है तो चबूतरा कह रहा है, पेट देख रहा है तो दीवाल कह रहा है। ये सब धर्म हैं, कि धर्मी हैं ? ये धर्म हैं। पर जब-तक हाथी का ज्ञान नहीं, तब-तक धर्म समझाना पड़ता है। लेकिन धर्मी समझ में आ जाये, तो धर्म कहने की आवश्यकता नहीं है।
"प्रसिद्धो धर्मी" धर्मी ही सत्य है, पर सत्ता में है। इसलिए धर्मों का पिण्ड जो है, उसका नाम धर्मी है। आत्मा 'धर्मी' है, ज्ञान-दर्शन 'धर्म' है । ज्ञान-दर्शन, धर्मी से भिन्न नहीं है।
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