________________
७१
समय देशना - हिन्दी में निहारते हैं, कभी ज्ञायक को ज्ञेयरूप में निहारते हैं। ज्ञायक ज्ञेयरूप में ऐसे ही है, जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब है। पर प्रतिबिम्ब कभी दर्पण होता नहीं, दर्पण में प्रतिबिम्ब होता नहीं, पर दर्पण में प्रतिबिम्ब झलकता है। इसी प्रकार से ज्ञेय ज्ञानमय तन्मय होते नहीं, ज्ञान ज्ञेय में तन्मय होता नहीं, पर ज्ञान के बिना ज्ञेय जाने जाते नहीं।
प्ररूपणा को सुरक्षित रखना अपने हृदय कोष में। इसलिए ज्ञायकभाव सिद्ध है। कब से ? अनादि से | कब तक रहेगा ? अनंतकाल तक । हे जीव ! तेरी बात नहीं कर रहे, ज्ञायकभाव की बात कर रहे हैं, तेरी बात तो हो गई । जहाँ ज्ञायकभाव है, वहीं जीवत्वभाव है और जहाँ जीवत्वभाव है, वहाँ ज्ञायकभाव है। सादृश्य-अस्तित्व से एकत्वभाव है। स्वरूप-अस्तित्व से विभक्त भाव है। लेकिन सादृश्य भाव सरागभाव है। सादृश्य अस्तित्व सबको लेकर चलता है। स्वरूपभाव वीतरागभाव है । यह सबको छोड़कर चलता है। सादृश्य अस्तित्व से हम सभी में जीवत्व जीवत्व समान हैं। इसलिए किसी से द्वेष नहीं करना । जब तुझे किसी से द्वे
सादृश्य अस्तित्व का चिन्तन करना । जैसा तेरा चिन्मय स्वरूप है. वैसा चिन्मय जगत का स्वरूप है। तो किसी से द्वेष नहीं करना । जब तुझे राग सताने लगे तो स्वरूप अस्तित्व का चिन्तन करना। नहीं, मेरा स्वरूप, मेरा चतुष्टय पर से अत्यन्त भिन्न है । मैं पर में नहीं, पर मेरे में नहीं। मैं एकत्व-विभक्त स्वरूप हूँ।
मैं इस समय 'परीक्षामुख' से बोल रहा हूँ, लेकिन 'समयसार' में बोल रहा हूँ | स्वरूप अस्तित्व, सादृश्य अस्तित्व पर ध्यान दो, तो ज्ञान ऐसे बरसेगा तेरे आँगन में, जैसे जबलपुर में पानी बरसता है। सादृश्य अस्तित्व से परिवार की लड़ाई बंद हो जायेगी। स्वरूप अस्तित्व से राग की लड़ाई बंद हो जायेगी । अध्ययन करो । न्याय पढ़ना, अध्यात्म के साथ पढ़ना । करणानुयोग भी पढ़ना, तो अध्यात्म के साथ पढ़ना, नहीं तो करणानुयोग वाले शुष्क देखे जाते हैं। कभी समय मिला तो मैं करणानुयोग में अध्यात्म रस भरके बताऊँगा। मैंने प्रवचन किया इन्दौर में पं. रतनलाल जी बड़े भद्रपरिणामी जीव हैं। सभी भैय्या लोग वह सुन रहे थे। वे लोग बोल पड़े- आपको तो कोई भी अनुयोग रख दो, आत्मा ही दिखती है। हमने कहाध्रुव सत्य है। अनुयोग में जो भी वर्णन है, आत्मा ही का है । द्रव्य, गुण, पर्याय के अलावा कोई कथन है ही नहीं। यदि करणानुयोग में अध्यात्म-जैसा रस भर दिया, तो इतना आनंद आयेगा जितना समयसार में भी नहीं आयेगा। पर जो शुष्क रूप से शुष्क बनकर पढ़ते हैं, वे कर्मप्रकृति तो गिनते हैं, पर अपनी प्रकृति नहीं गिनते।
आप बुरा नहीं मानना, पर बुरा मानना, इसलिए कह रहा हूँ। आपने रटा दर्शनावरण की या ज्ञानावरण की इतनी प्रकृतियाँ है । तो रट लिया, पर अपनी प्रकृति नहीं बदली, तो प्रकृति बदलेगी कैसे? उमास्वामी को कहना पड़ा- "स यथानाम्" जो जैसी प्रकृति है, वैसा नाम है । स्त्री का नाम स्त्रीरूप, पुरुष का नाम पुरुषरूप । प्रकृति बदले बिना भेष बदलकर बैठ गया, तो चोटी के भेष में भी खोटी ही मिलती है। क्यों ? प्रकृति नहीं बदली। प्रकृतियाँ भी पढ़े प्रकृति बदलने के लिए, तो ज्ञायकभाव की प्रकृति बन जायेगी। फिर प्रगति होगी। ज्ञायकभाव सिद्ध नहीं, असिद्ध नहीं, वह अनादि सिद्ध है। सिद्ध को सिद्ध करना पड़ता है। ज्ञायकभाव तो जगत-प्रसिद्ध है । ज्ञायकभाव क्या है ?
"चेतना लक्षणो जीवा"। कारण कह दिया, कार्य लगा लो। ज्ञायकभाव प्रसिद्ध है। क्यों? जो धर्मी होता है, वह प्रसिद्ध होता है । जहाँ ज्ञानदर्शन बोल दिया, वहाँ जीव समझते कि नहीं? जहाँ स्पर्श, रस,
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org