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समय देशना - हिन्दी भुक्तोज्झिता मुहुर्मोहान्मया सर्वेऽपि पुद्गलाः ।
उच्छिष्टेष्विव तेष्वद्य, मम विज्ञस्य का स्पृहा ।। ३० इष्टोपदेश ।। हमनें बार-बार भोगा है, पुद्गल का एक परमाणु भी ऐसा नहीं बचा जिसे हमनें भोगकर न छोड़ा हो | क्यों वमन पर मान कर रहा है ? कोई माँगे, तो दे देना कि ले जाओ, पर मेरे धर्म को नहीं ले जाना । क्योंकि अभी लगता है कि ले जा रहा है परन्तु ये कुछ नया नहीं कर रहा है। दिया होगा, तभी माँगने आया है। प्रेम से दे देना, कि ले जाओ। सुनने में कितना अच्छा लगता है ? सुनने में अच्छा लगता है, तो छोड़कर देखो, कि कितना अच्छा लगता है। इस भूमि पर ऐसा कोई प्रदेश नहीं बचा, जहाँ तूने जघन्य अवगाहना से उत्कृष्ट अवगाहना तक जन्म-मरण न किया हो । क्यों एक-एक अंगुल के पीछे भाई-भाई का सिर फोड़ रहा है ? क्या तुम यहीं रहनेवाले हो ? अरे ! मृत्यु के बाद चले जाना है। ध्रुव/अटल सत्य है कि यहीं छोड़कर जाना है | मोह का नशा उतार लो, उस दिन तुम संसार से थकने लगोगे । ऐसा कोई द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव नहीं जिसमें भ्रमण न किया हो। भावों का तो कहना ही क्या असंख्यात लोकप्रमाण परिणाम किये हैं। 'लब्धिसार' या 'क्षपणासार' देख लो, और कुछ नहीं कह सकता, भावों की बात देखना हो तो वहाँ देख लो।
हे मुमुक्षु ! चारों ओर से भ्रान्त हुआ तू। तू सारे विश्व पर चक्रवर्ती- जैसे छः खण्ड पर राज्य करता है। चक्रवर्ती से बोल देना, कि तू क्या राज्य करेगा, तू तो पृथ्वी के राज्य को अपना राज्य कहता है। विश्व का महान सम्राट है जो, उसका नाम मोह है । जिसने हृदय-हृदय पर राज्य किया है। कितना बड़ा राजा है ? एकछत्र राज्य कर रहा है, सब उसकी प्रजा बनी बैठी है। मोह राजा के शासन में चल रहे हो। जैसा वह कहता है, वैसा ही कर रहे हो। तुम स्वतंत्र हुए कहाँ हो? मोह का एकछत्र राज्य चल रहा है। जैसे- बैल को नकेल डाल दो तो, जिधर खींचो, उधर चलता है। वैसे ही मोह राजा ने बैल बना डाला है। हम नहीं कह रहे, आगम कह रहा है। किनसे भ्रमित हो रहा है ? तृष्णा से । जैसे मृगतृष्णा में भागता है, वैसे ही संसार की तृष्णा में ये भाग रहे हैं। मृग तो मृगमरीचिका को देखकर दौड़ता है। आप मृग नहीं हो? पर मृग से कम कहाँ हो? पर्याय में भले मृग न हो, पर तृष्णा में मृग से कम नहीं हो। मोह का छत्र लगा है, विषय ग्राम में मृग दौड़ रहा है। दिगम्बर आचार्य इन योगीश्वरों से कहते हैं- हे योगियो ! तुम ऐसा आचरण करो, मोक्ष को प्राप्त कर लो
यहाँ पर मोह के सब आचार्य बैठे हैं, जो अपने बेटों को दूकानदारी आदि सिखाते हैं, पर यह नहीं सिखाते कि कषाय मत करना, मोह मत करना, मुनि बन जाना । 'समयसार' पढ़ना सरल है, पर 'समयसार' पर जीना बहुत कठिन है। अत्यन्त विसंवाद का कारण होने पर भी काम, भोग, बंध की कथा अनंतबार की, नित्य चिद्ज्योति जाज्वल्यमान चिर सत्ता विराजती थी, तब भी कषाय चक्री प्रकाशमान हुआ है। प्रदीपवत् ज्ञान जो होता है, वह स्व-पर का प्रकाशी होता है । यहाँ प्रकाश से ज्ञातृत्व भाव लेना । स्वयं को भी जानता है, पर को भी जानता है, ऐसा प्रकाशवान ज्ञान होने पर भी ज्ञान तेरा कभी नष्ट नहीं हुआ आज तक; पर कषायचक्र के सहकारी होने के कारण इसे अत्यन्त तिरोहित कर दिया, उस पर ध्यान ही नहीं दिया। जैसेमेहमान आ जाये, और विशेष ही आ जाये, पत्नी का भैय्या आ गया, तो सामान्य रिश्तेदार को तुम देखते भी नहीं हो, जबकि वे भी थे। यही तेरे साथ हो रहा है। ज्ञान ज्योति तेरे साथ त्रैकालिक है। आत्मा में ज्ञान की उपासना न करते हुये, न जिसे तूने पूर्व में सुना, न तू उससे परिचित हुआ, न
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