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समय देशना - हिन्दी शब्दों का प्रयोग किया है। यह मोक्षमार्ग लोकाचार का नहीं है, लोकोत्तराचार का है। लोकाचार में क्या करना पड़ता है ? पंडित जी पधार गये, आपने चंदन से तिलक लगवा दिया, ये लोकाचार है। क्यों? तूने चंदन का जो टीका किया है, वह टीका किसने किसका किया है ? ये अभिनंदन किसका? अभिनंदनीय तो त्रैकालिक था। अभिनन्दन तो भव से भव का है। हे मुनीश्वरो ! तुम मत चाहो इस तन की ख्याति । भव का अभिनंदन करते-करते आज तुम आ गये इस अवनि पर। भव का अभिनंदन करोगे, तो कैसे मिलेगी सिद्धालय की माटी ? मुनिधर्म लोकाचार नहीं, ये लोकात्तराचार है। इसलिए व्यवहार और परमार्थ दो शब्दों पर ध्यान देना । ये 'समयसार' ग्रन्थ परमार्थभूत है । बस, इतना ध्यान रखना । जो व्यवहार धर्म है, उसका नाम रत्नत्रय भेदरूप है । जिसके लिए पाला जा रहा है, वह निश्चय अभेद रत्नत्रय है । लेकिन मूसल पूजो, पेड़ पूजो, मिथ्या का व्यवहार है, धर्म नहीं। कुछ ऐसी व्यवस्था है जिसमें सम्यक् भी बहुत दूर है, और कभी लोकाचार इतना बड़ा हो जाता है कि लोकोत्तराचार का टिकना बंद हो जाता है। जैसे कि दो पुरुष बड़े लम्बे हैं। इन लम्बे पुरुषों को महल की छत पर खड़ा कर दो। लम्बे हैं, तो वैसे-ही ज्यादा दिखेगा, और महल पर खड़ा कर दो, और उनसे बोलो देखो, एक व्यक्ति को विमान में बैठा दिया और विमान ने उड़ान भरना प्रारंभ कर दिया, अब आप दोनों बताओ कि विमान दिख रहा कि नहीं? तो वह कुछ क्षण तक कहेंगे, हाँ। फिर कहेंगे हाँ, न; दो बोलेंगे। क्यों? क्योंकि दूरी बढ़ती है, तब पहले तो दिखता है, फिर नहीं दिखता। फिर कहेंगे हाँ, न । जैसे ही दूरी बढ़ जाती है, फिर कहता न, न, न । हे ज्ञानियो ! लोकाचार में इतने बढ़ गये हो तुम कि उसमें लोकात्तराचार कहता न, न, न। फिर लोकात्तराचार कहता है, कि मेरी तो झलक भी नहीं आ रही है। इतना लोकाचार आ चुका है, कि मेरी दूरी बहुत आगे हो चुकी है। परमात्मदृष्टि कहेगी कि लोकाचार में इतने मत चले जाना, जिससे कि विमान का दिखना न, न, न हो जाए। हाँ, न में फिर भी कुछ झलक थी, पर न में तो पूरा चला गया । परमार्थ है, लोकोत्तराचार है।
हे मुमुक्षु ! तू कब तक लोकाचार में रहेगा ? लोकोत्तराचार की ओर चलो। हे भवाभिनंदी ! भव का अभिनंदन कब तक करते रहोगे ? भवातीत पर दृष्टिपात करो। किंचित भी भव पर दृष्टि है, तो भव का सुधार कैसे ? भव का ही अभिनंदन है।
हम किसी का सत्कार/सम्मान करते हैं तो उसमें छिपा रहता है स्वयं का सत्कार । मैं इनके नगर जाऊँगा, तो ये भी सम्मान करेंगे। इसलिए वह व्यवहार स्वीकार है, जो परमार्थ का साधन है ।पर वह धर्म व्यवहार स्वीकार नहीं जो परमार्थ से शून्य है । वह लोकाचार है। व्यवहार धर्म तो परमार्थ का साधन है। अन्तर डालना। धर्म-व्यवहार वही है, जो परमार्थ का साधन है । जो परमार्थ का साधन नहीं है, वह लोक व्यवहार परमार्थ निश्चय
चय धर्म होने से तलना नहीं। सभी जगह एक ही शब्द प्रयोग मत करना। सअर के केशलोच कब होना? ऐसा कभी नहीं कहते । क्योंकि सुअर के बाल खींचते हैं, साधु के केशलुंचन होते हैं। क्यों? स्वाधीनता है केचलुंचन में, खींचने में पराधीनता। जिसमें स्वाधीनदशा है, वह व्यवहार ‘परमार्थ है, और जिसमें पराधीनता है, वह व्यवहार 'लोकाचार है। व्यवहार के विभाग करो, वह भी तो व्यवहार है। बेटी की शादी में ग्यारह रुपये पड़ोसी दे गया था, तो आपने भी इक्कीस रुपये व्यवहार पहुँचा दिये। ये समयसार
का व्यवहार नहीं है । हे ज्ञानी । ये संसार चलाने का व्यवहार है। समयसार का व्यवहार सातवीं गाथा में • कहूँगा, अभी छठवीं गाथा पढ़ना है। पंचपरमेष्ठी के चरणों का स्पर्श करना, ये व्यवहार धर्म है। माता-पिता के चरण स्पर्श करना लोक-व्यवहार है। इतना अन्तर है। अन्तर डालना, नहीं तो विनय-मिथ्यात्व में पहुँच
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