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समय देशना - हिन्दी योगी! घर नहीं छोड़ा जाता । बर्तनों को दूर करने के लिए हम दूर आ गये हैं, जिससे खटके न। घर, कुटुम्ब से दुश्मनी नहीं थी, पर स्पर्श हो जाता है तो आवाज आने लगती है। आवाज आती है तो हमें भिन्न आवाज को सुनना पड़ता है। मैं जिसे सुनना चाहता था, वह शून्य हो जाता है। आपको हर पक्ष सुना सकता हूँ, पर शांति किसमें मिली थी? इस पक्ष में शांति मिली।
___ आपको आवाज में शांति मिली थी कि मौन में शांति मिली थी? तो ज्ञानी ! शुद्ध समयसार समझना है तो अब मौन से सुनो। किंचित भी हमारी आँख की पलक झपकने की आवाज भी मेरे समयसार में बाधा डालती है। वो तो शुद्ध वर्तन है, वह बरतनों का वर्तन नहीं है। जेब में दो सिक्का रखोगे तो आवाज आयेगी, तो चोर जेब काट लेगा । क्यों ? आवाज आ रही थी।
ज्ञानी ! जहाँ द्वैत भाव लेकर मोक्षमार्ग में चलोगे, वहाँ चैतन्य स्वानुभव की जेब तो कटेगी। संकल्पविकल्प के दो सिक्के हैं, इन दोनों सिक्कों को अलग-अलग कर दो, फिर आप दौड़कर भी चलना, तो पता नहीं चलेगा चोर को कि जेब में क्या है। एकत्व विभक्त स्वरूप वही कह रहा है । रत्नत्रय के रत्नों को लेकर चलते हैं योगी, तब भी कोई लुटेरा लूट नहीं पाता, क्योंकि उसने आवाज करना बन्द कर दिया है।
एयत्तणिच्छयगओ समओ सव्वत्थ सुंदरो लोए। एकत्व जो भाव है, लोक में सबसे सुन्दर कोई है, तो एकत्व विभक्त चिदानंद आनंदकन्द ज्ञानघन स्वरूप है। इस ज्ञानघन की चर्चा कितना आनंद देती है, तो उसकी अनुभूति कितना आनंद देगी ? जिस अध्यात्म विद्या के शब्द में ही इतनी शांति है,उस अध्यात्म विद्या की चर्चा में कितनी शांति होगी? एकत्व में बंध की कथा विसंवादणी होई, यही विसंवाद है। ज्ञानियो ! स्वतंत्र कक्ष में रह रहा है, वह बात करेगा किससे? अपने चेतन भवन में अकेले रहना सीखो। क्रोध, मान को भी मत बुलाओ और माया की सखी को भी नहीं फटकने देना, अकेले ही रहना। अकेले रहोगे तो अपने से बात कर पाओगे।
॥ भगवान् महावीर स्वामी की जय ॥
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यह भी आत्मा का एक स्वभाव है, मार्गणास्थान, गुणस्थान इत्यादि । लेकिन इन सब सापेक्ष स्वभाव से कोई निरपेक्ष स्वभाव है, तो गुणस्थानातीत, मार्गणातीत । यह आत्मा का ध्रुव स्वभाव है। समयसार में समिश्र आत्मा का वर्णन नहीं है, समयसार ग्रन्थ में अमिश्र आत्मा के स्वभाव का वर्णन है ।समिश्र (पुद्गल से युक्त) जो दशा आत्मा की है, वह संसारी आत्मा का कथन है। पुद्गल पिण्ड से शून्य जो आत्मा के स्वभाव का कथन है, वह अशरीरी सिद्ध परमात्मा का कथन है । वह सिद्ध कैसा है ? सिद्ध स्वरूपी आत्मा शरीर में रहते हुये भी शरीरभूत नहीं होता है । इस पर आचार्य-भगवान् जोर दे रहे हैं। शरीर में रहते हुए संसारी अवश्य होता है; फिर भी, शरीर में रहते हुए भी शरीरभूत नहीं होता है, शरीर में अवस्थित होता है। शरीर से युक्त तो है, शरीरभूत नहीं है । स्वर्ण किट्ट कालिमा से युक्त तो है, इसमें कोई विकल्प नहीं है, लेकिन स्वर्ण किट्टिमा किंचित भी नहीं है। संसारी आत्मा कर्म कालिमा से युक्त तो है, इसलिए संसारी है, लेकिन विश्वास रखना, कालिमा से युक्त ही है, पर कालिमा नहीं है । जो होता है, वह कभी भिन्न नहीं किया जा सकता है। आत्मा से कर्मों को भिन्न किया जाता है, इसका मतलब है कि आत्मा कर्म नहीं है। आत्मा में कर्म तो हैं संसार दशा में, लेकिन आत्मा कर्म नहीं है। ऐसा भान जो करा दे, उसका नाम समसयार है। अरे ज्ञानी
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