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समय देशना - हिन्दी
४४ चलायमान करने के लिए दृष्य देखा । आँखें बन्द हो गईं तो कान से सुनने लगा। आँख बन्द हो गई, कान भी बन्द हो गये, पर अनुभव करना बन्द नहीं हुआ । अस्सी साल के बूढ़े हो गये, पर अनुभूति का मन अभी भी बूढ़ा नहीं हुआ। तन से भोग नहीं पाता तो भोगों को याद करता है। विश्वास रखो, भोग तो बन्ध के कारण हैं ही, पर भोगभावना भी बन्ध ही का कारण है। आचार्य बट्टकेर स्वामी 'मूलाचार' में कहते हैं -
कंरिवदकलुसिदभूतो कामभोगेसु मुच्छिदो संतो।
अभुजंतोवि य भोगे परिणामेण णिवज्झेइ ॥ ८१|| वह भोग न भी करे, परन्तु परिणामों से भी बन्ध होता है, तन्दुल मच्छ जैसे । महामच्छ एक हजार योजन लम्बा, पाँच सौ योजन चौड़ा, ढाई सौ योजन मोटा, छ: माह सोता, छः माह जागता है। जब सोता है, तो मुख खुल जाता है। अनेक जीव आ रहे, अनेक जीव जा रहे, जबकि कान में बैठा तंदुलमच्छ खाता है कान के मल को, पर सोचता है कि ये कैसा पागल है? मैं होता तो एक को भी नहीं छोड़ता। जबकि वह एक को भी नहीं खा पाता, पर खाने के परिणाम करके सातवें नरक को जाता है। केवल सुनना ही नहीं है, संभलना भी है। घर की व्यवस्था बदली कि नहीं बदली? उस घर की न बदले, पर आत्म-घर की जरूर बदल लेना। || भगवान् महावीर स्वामी की जय ॥
goa आचार्य-भगवान् कुन्दकुन्द स्वामी जीव को समझा रहे हैं। आज तक तूने किया तो क्या किया? इस लोक में एकत्व-विभक्त दुर्लभ है। विषय, काम, भोग की कथायें अनादि से सुनी हैं। इनसे ही परिचित है। इनका ही अनभुव किया है। वे बड़ी सुलभ महसूस होती हैं। लेकिन ध्यान रखो, राग के वश होकर अपने स्वभाव से भ्रमित होना तत्त्वज्ञानी का स्वरूप नहीं है। जिस दिन ज्ञान होगा, उस दिन सम्बन्ध छूट सकता है, लेकिन धर्म नहीं छूटता । पहले संबंध छूटता हो तो, अभी ही छूट जाये; लेकिन जिस दिन धर्म का ज्ञान हो जायेगा, उस दिन हम पर संबंधों में आकर अपने वीतराग स्वभाव से च्युत नहीं हो पायेंगे। ज्ञानियो ! विश्वास रखना, ऐसी जगत् की लीला है। समझता है, जानता है, फिर भी पर के राग में लीन होकर अपने आपको चारित्र से भ्रष्ट किये है। पर राग में बना होने के कारण यहाँ तक होता है जीव के साथ कि उसे इन्द्रिय-विकार भी नहीं सता रहे, तब भी इन्द्रिय-विकारों की परिणति को छोड़ नहीं रहा है। क्यों ? पर के कारण । हे ज्ञानी ! पर का कारण निमित्त मात्र है। वासनाएँ हो गई, पर वासना नहीं गई। यानी भोगने की शक्ति तो गई, पर भोगने के जो संस्कार थे, वे नहीं जा रहे हैं। जो निज में वास न होने दे, उसका नाम है वासना । एकत्वविभक्त स्वरूप में वास होना चाहिए था, ध्रुवत्व अखंडत्व में वास होना चाहिए था, चिद्स्वरूप में निवास होना चाहिए था। उन सब से हटकर वासना में वास है, और चिदानंद में वास नहीं है। इसी बात को आचार्य भगवान् अमृतचन्द्र स्वामी टीका में समझा रहे हैं कि, मुमुक्षुओ ! ध्यान दो "सुलभां विहितस्स ..........
एकत्व विभक्त्व सुलभ नहीं है । परन्तु जो संसार में भटकानवाले साधन हैं, वे सुलभ हैं; जबकि एकत्व-विभक्त्व की प्राप्ति के लिए कहीं जाना नहीं पड़ता । एकत्व-विभक्त्व त्रैकालिक सिद्धान्त है उसका कभी विनाश न हुआ, न होगा, परन्तु राग के संस्कार इतने प्रचुर हैं, कि एकत्व-विभत्त दशा पर दृष्टि ही नहीं जा रही है। और यथार्थ बताऊँ, यह भी सत्य है कि इस जीव ने चिंतन भी नहीं किया और चिंतन करानेवाला कोई मिलता भी है तो हमारे ऐसे अनादि के खोटे संस्कार थे कि जैसे कोई बालक के बीमार
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