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समय देशना - हिन्दी जायेगा। शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से सम्पूर्ण संसारी जीव सिद्ध के समान शुद्ध आत्मा हैं। आप विपरीत श्रद्धा नहीं कर लेना। मिश्री तो मीठी ही होती है, लेकिन हुआ ये कि जिसको खाने को दी गई थी, देनेवाले को ध्यान नहीं रहा कि घर में कड़वी तुम्बी रखी थी, उसमें मिश्री को रख दिया। कड़वी तुम्बी का रस मिश्री में लगेगा, तो मिश्री कड़वी लगेगी। आपको पित्त ज्वर हो, तो आपके मुख के पित्त ज्वर से मिश्री कड़वी लगती है। मिश्री कड़वी थी, कि तुम्हारा मुख कड़वा था, कि तुम्बी कड़वी थी?
ध्यान दो, मैं निश्चयनय का कथन कर रहा हूँ, आप सब जी रहे हो व्यवहार में । कदाचित् आपको यह महसूस न होने लग जाये कि मैं अनुभूति ले रहा हूँ, और महाराज कह रहे हैं कि आत्मा भिन्न चिद्वभाव में है। उसकी अनुभूति कैसी है ? मिश्री तो मीठी ही है, आत्मा तो शुद्ध चिद्स्वरूपी ही है। लेकिन कर्मो की कड़वी तुम्बी का सहयोग है, उसके कारण तू विषयों के विषय में लीन है। इसलिए तुझे औपाधिकभाव में आनंद आ रहा है। निरुपाधिक देखे, तो मिश्री मीठी है। इसलिए ध्यान दो, जो यह कथन है, वह कर्मों को गौण करके सुनिये, जैसे कि आप शैवाल से युक्त तालाब को देखकर भी शैवाल को गौण कर देते हो, और पानी को पी लेते हो। इसी प्रकार से कर्मों की शैवाल को गौण करके चैतन्य नीर को निहारिये, तब समझ में आयेगा कि तत्त्व क्या है । जहाँ आपने मिश्र धारा में जिया, और सुन रहे निश्चय को, तो आपको तत्त्व असत्य नजर आयेगा, जबकि तत्त्व असत्य नहीं होता, तुम्हारी मिश्र धारा असत्य थी।
कर्मजनित गुणस्थान आदि जो पर्याय है, ये बंध की कथा है। ज्ञानियो ! एक कन्या बैठी थी, न कोई उसे अपनी पत्नी कह रहा था, न बहू कह रहा था। हे कन्ये ! जब-तक तू पर-संबंध को प्राप्त नहीं हुई, तब तक तू कन्या है और जगत में स्वच्छ है । हे कन्ये ! जब तक तूने किसी का कर नहीं पकड़ा, तब तक कन्या है। जैसे-ही कर पकड़ लेगी, वैसे-ही संबंध लग जायेगा। हे भगवती ! कुंआरी कन्या ! कौन? आत्मा। जब मैं तुझे कन्या के रूप में देखता हूँ, तो तू मुझे पूज्य दिखती है, क्योंकि भारत में कन्या को पूज्य माना जाता है। और जब तू कर्मों से सम्बन्ध जोड़ लेती है, तब तू व्यभिचारिणी नजर आती है। इसलिए तू कर पकड़ना छोड़ दे । कर नहीं पकड़ेगी, तो 'कर' नहीं देना पड़ेगा। 'कर' नहीं देना पड़ेगा तो निज कर में ही लवलीन होकर पाणिपात्र में तू ग्रास ले लेना, पर अपना पाणि किसी को मत देना । हे कुँवारी कन्ये ! तू निर्ग्रन्थ मुनि बनकर पाणिपात्र में ग्रास ले लेना, पर अपने पाणि को किसी के पाणि में मत दे देना । पाणि यानी हाथ जो पाणि ग्रहण करता है, वह गृहस्थ होता है और जो पाणिपात्र में लेता है, वह दिगम्बर मुनि होता है। "पाणिपात्र दिगम्बर:'' दिगम्बर योगी पाणिपात्री होते हैं। जबसे संबंध हुआ, तब से विसंवाद हुआ। जब कन्या कुंवारी थी. तो तम्हारे सिर में दर्द नहीं था। जब से सम्बन्ध किया, तो तुम्हारे सिर में दर्द हो गया। दर्द का कारण संबंध है। संबंध हटा लो, संबंधों से हट जाओ, वो जैसा है वैसा ही है। विसंवाद का क्या अर्थ है? विसंवाद मिथ्या तथा कषाय होने से असत्य होता है। जो संवाद से रहित हो, वह विसंवाद है। तत्त्व पर, सत्य पर कोई विसंवाद नहीं होता। विसंवाद तो तत्त्वाभास/सत्याभास पर होता है। जब भी विसंवाद होता है, असत्य से होता है । इसलिए परभाव शुद्धजीव का स्वभाव नहीं है । विसंवाद जीव का स्वभाव नहीं है । आत्मा तो अविसंवादी है। इसलिए स्वसमय ही आत्मा का स्वरूप है, ऐसा जानो।
कन्या कुँवारी होती है। भगवान्-आत्मा तो अविसंवादी कुँवारी कन्या है। जिसे आप सुन रहे हैं, वह सहेतुक है कि अहेतुक है ? भगवती आत्मा तो कुंवारी कन्या है, यह स्वघर की है, परघर की नहीं है। कुँवारी कन्या से मेरा प्रयोजन ? आत्मा ही कुंवारी कन्या है। आठ अंगुल के पीछे अष्टम भूमि को खो रहे हो । चार अंगुल की रसना, चार अंगुल की स्पर्श, इन ये आठ अंगुल को वश में कर लो तो अष्टम वसुधा में विराजित
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