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समय देशना - हिन्दी परन्तु तेरा तो मोक्षपथ टूट रहा है विषयों की चासनी में । अभी पुरुषार्थ ढीला है। जिसे आप पुरुषार्थ मान रहे थे, वह तो पुरुषार्थ के नजदीक की बातें थी, पुरुषार्थ नहीं था ।
पुरुषार्थ तो उसका है, जो पहली प्रतिमा से ग्यारहवीं प्रतिमा लेकर चलना प्रारंभ कर देता है । पुरुषार्थ उनका है, जिन्होंने जैनेश्वरी दीक्षा ले ली हो । बाकी की तो बातें हैं । पुरुषार्थी वही है जिसने मिथ्यात्व का विगलन किया हो । पुरुषार्थी वही है, जिसने सम्यक्त्व की सीढ़ी पर पैर रखा हो; क्योंकि अब तीसरी गाथा की विस्तृत व्याख्या मैं प्रारंभ करूँ, इसके पहले इतना ध्यान दो कि सब पुरुषार्थ की चर्चा बहुत नीची थी। एकत्व - विभक्त, शुद्ध चिद्रूप अवस्था है, उस पर दृष्टिपात करो। हे ज्ञानी ! तेरे से तेरे में अत्यन्ताभाव है, फिर मेरे से मेरे में अविनाभाव कैसे ? दुनियाँ को बदलने की बात करता है, कि मैं दुनियाँ को बदल दूँ । तू एक भी बाल को तो बदल नहीं पाया, उसने तेरी एक नहीं मानी, कितना तेल लगाया, पहले काले थे, सफेद हो गये, फिर झड़ गये।
एकत्व-विभक्त कह रहा है कि लोक में सबसे सुन्दर एकत्व - विभक्त है। मैं हूँ, मैं ही हूँ। मैं तो मैं से अभिन्न हूँ। मैं तो मैं के लिए अभिन्न हूँ। मैं पर को भिन्न देखता हूँ। मैं पर से भिन्न हूँ। मैं पर के लिए भिन्न हूँ । मैं पर से अत्यन्त भिन्न हूँ। मैं तो मैं के अलावा सबसे भिन्न ही हूँ। मैं राग-द्वेष भाव से भी भिन्न हूँ । ये मेरे में होता, तो सिद्धों में होता। मेरे में नहीं होता, मेरे विभावों में होता है। यह रागादिक भाव मेरे में नहीं होते, मेरे कर्म की दशा में होते है । कर्म चला जाये, तो राग-द्वेष चला जाये । राग-द्वेष चला जाये, तो कर्म चला जाये । पुरुषार्थ कर्मों पर नहीं, रागद्वेष पर करना है। कर्म तो चले जायेंगे, तुम रागद्वेष को विदा कर दो। बेटी की बिदा कर दी जाती है, तो बेटी - संबंधी घर का व्यापार बंद हुआ कि नहीं ? हे मुमुक्षु ! मन के विकारों को विदा कर दो, तो कर्मों का व्यापार अपने आप बन्द हो जायेगा । कर्मों को द्रव्य कर्म ने सजाकर नहीं रखे है, कर्मो को तेरे भावकर्म सम्हाल कर रखे हैं । पुरुषार्थ तुम कर्मों पर कर रहे हो कर्म करके ही । अरे ! कर्मों पर पुरुषार्थ छोड़ो, धर्म करके भावकर्म पर पुरुषार्थ करो। कर्म करके कर्मों पर पुरुषार्थ कर भी लोगे, लेकिन कर्म छोड़कर नहीं जायेंगे ।
इसलिए 'समय' (स्व) को प्राप्त करना है, तो 'समय' शब्द के राग को भी छोड़ना पड़ेगा। एकत्व - विभक्त ही द्रव्य का स्वरूप है। गगन ने धूल को पकड़ा नहीं है, परन्तु गगन में चलनेवाली आत्माओ ! तुमने कर्म को क्यों पकड़ा ? आकाश निर्लिप्त है, तो तपोधन का समयसार भी निर्लिप्त है। योगी को किसी भी आगम में कर्म की उपमा नहीं दी जाती। योगी को आगम में गगन की उपमा दी जाती है। हे योगी ! कर्दम का कार्य है स्वयं काला रहना, दूसरे को भी काला कर देना । गगन का कार्य है स्वयं शुद्ध रहना, पर दूसरे को अपने में नहीं लगाना। गगन के समान जो निर्लिप्त हैं, वे ही समयसार के समान निर्लिप्त तपोधन हैं। ऐसा तपोधनी समयसारभूत है ।
'समय' शब्द से यहाँ पर सम्पूर्ण पदार्थों को (छः द्रव्यों को ) ग्रहण करना सामान्य से। विशेष से सिर्फ आत्मतत्त्व को ग्रहण करना । सामान्य से सम्पूर्ण द्रव्यों को ग्रहण करना । जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल अपने चतुष्टय में ही विराजते हैं। सभी द्रव्य एकत्व - विभक्त्वभूत हैं । जीव की ही विडम्बना है, जो रागादि भाव करके, पर द्रव्यकर्म को स्वीकार करके एक भी द्रव्य को स्वीकार किया, तो अनंत कर्मों
इन्द्रियाँ आपकी पाँच हैं, फिर विषयों में मन क्यों नहीं जा रहा
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में लीन हो गया । यहाँ पर आप बैठे सुन रहे हो,
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