________________
समय देशना - हिन्दी
३४
! जो सिद्धि को साध चुके हैं, उनके लिए सिद्धि की भी आवश्यकता नहीं है। जो सिद्ध नहीं हुये हैं, उन असिद्ध - सिद्धों के लिए ही कथन है। सिद्ध-सिद्धों के लिए आगम में कोई उपदेश नहीं होता, वे तो स्वयं में सबकुछ होते हैं। जिनवाणी असिद्ध के लिए है। सिद्धों की तो यहाँ वंदना है, सिद्धों के लिए आगम नहीं है । जो सिद्ध नहीं हुए उन प्रसिद्ध असिद्ध के लिए समयसार ग्रंथ है। जो प्रसिद्ध सिद्ध हैं, वे स्वयं समयसार हैं। ग्रंथों को बाँच कर जो सिद्ध बने, वे प्रत्येकबुद्ध हैं। जो बिना ग्रंथ वाँचे सिद्ध बन जाये, वे स्वयंसिद्ध हैं।
तो चलें प्रसिद्ध सिद्ध की बात करें। उसे नहीं जानना, जिसे हम जानते हैं। जानना उसे है, जिसे हम पहचानते हैं, पर जानते नहीं हैं। आप अशरीरी सिद्ध आत्मा को ग्रंथों से पहचानते तो हो, लेकिन अनुभूति से जानते नहीं हो । जानोगे तब, जब तुम स्वयं सिद्ध हो जाओगे। ये सब पहचानना चल रहा है। पहचानने वाले को पहचाना ही जाता है, उसकी अनुभूति नहीं होती। आप विदिशा से आये, आपने यहाँ पाँच मुनिराजों को जाना-पहचाना । पहचान तो लिया कि दिगम्बर मुनि ऐसे होते हैं, पर दिगम्बर स्वरूप को जानना चाहते हो । दिगम्बर रूप तो दुनियाँ जानती है, पर दिगम्बर रूप को जाननरूप जानना है, तो उसे दिगम्बर ही होना पड़ता है। इसलिए आपने आज तक तत्त्व को जाना नहीं है, पहचाना है। जानना है, तो तत्त्वमय होना होगा | जो सिद्धालय में विराजते सिद्ध हैं, वे जाननेवाले सिद्ध तो सिद्ध के स्वरूप में हैं। जो संसार में प्रसिद्ध सिद्ध हैं, वे सिद्धों को पहचाने वाले सिद्ध हैं। पर पहचानने वाले बन जाओगे, तो जाननेवाले भी बन जाओगे। अध्यात्म शास्त्र यह नहीं कहता कि आत्मा को जानो। अध्यात्म शास्त्र कहता है कि आत्मा को पहचानो। जब पहचान जाओगे, तब जानने का पुरुषार्थ करोगे । सामान्य शब्दों में लोगों को शब्द एकसे लगते हैं, पर शब्दों की भी शल्यक्रिया की जाये तो शब्दों के अर्थ भिन्न-भिन्न होते हैं।
आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी तीसरी गाथा का अर्थ कर रहे हैं। सम्पूर्ण गाथा का सार एकत्व विभक्त चिद्रूप है। शुद्ध, बुद्ध, चिद्रूप समझना सरल है, परन्तु एकत्व-विभक्त स्वरूप समझना कठिन है। शुद्धोऽहं, बुद्धोऽहं कहना सरल है । ये तो शब्दजाल है। जो कि ग्रन्थ में लिखा है, इसलिए कह लेंगे। इस शुद्धोऽहं, बुद्धोऽहं से शुद्ध-बुद्ध की सिद्धि नहीं होती है। कठिन है तो पृथकत्व भिन्न स्वरूपोऽहं कठिन है। स्वरूपोऽहं, जो तू परभावों में लिप्त है और परद्रव्यों को समझते हुये भी परद्रव्य से भिन्न द्रव्य को भिन्न नहीं कर पा रहा है, कठिन तो है । शुद्ध, बुद्ध शब्द से शुद्ध-बुद्ध नहीं बनेगा । अपने आपको भिन्नत्व भाव में ले जाकर परभावों से भिन्न करके वेदन करेगा, वही शुद्ध-बुद्ध बनेगा।
___ ज्ञानियो ! अभी आपको अपनी गृहस्थी की व्यवस्था व्यवस्थित दिख रही है, इसलिए आप शान्त बैठे हो । गृहस्थी अव्यवस्थित हो जाये, फिर कहना 'भिन्नोऽहं" । मकान गिरने लगा, दुकान पर कब्जा कर लिया, बेटा अशुभ शब्द बोलने लगे, पत्नी भी बेटे के साथ बदल गई, जिसके कारण तूने माँ-पिता को छोड़ा, वह भी तुझे छोड़ने लग गई, अब कहना कि गलत क्या किया है ? बहुत अच्छा हुआ । जो मरने के बाद छूटता, वह पहले ही छोड़ दिया, तो कम-से-कम वैराग्य का स्वरूप समझ में आ गया। यह ज्ञान हो जाये कि हम चिपके थे, या वे हमसे चिपके थे?
हे ज्ञानी ! ध्रुव सत्य यही है कि जो राग की चासनी में चिपके होते हैं, तब इनको मालूम नहीं चलता कि चासनी भिन्न है और जो चिपका, वह भिन्न है । जब चासनी को कोई उठा ले जाता है, तभी तो मालूम चलता है कि भिन्न थी। विषयों की चासनी में चिपकी आत्माओ ! मक्खी के तो चासनी में पंख ही टूटते हैं,
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org