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समय देशना - हिन्दी
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में रहना है । परन्तु लोक का अवलोकन करना परभाव में रहना है। लोक में रहना कष्टप्रद नहीं, परन्तु लोक में रहकर लोक को नहीं देखना कष्टप्रद है । लोक यानी लुक् धातु, दृश्यन्ते । जिसमें छः द्रव्य देखे जाते है, उसका नाम लोक है । छः द्रव्यों में तू भी एक द्रव्य है। सम्हल कर सुनना । जिसे आप लोक कहते हैं, वह लोक नहीं, आकाश है । छः द्रव्यों का नाम लोक है। वे द्रव्य जिस आकाश में रहते हैं, उसका नाम लोकाकाश है । "लुक्यन्ते, दृश्यन्ते यस्मिन् स लोका: "
जिसमें देखा जा रहा है, जिसमें दिख रहे हैं छः द्रव्य, उसका नाम लोक है । ज्ञानियो ! लोक छः द्रव्यों का समूह है। आधार में आधेय का उपचार होने से जहाँ छः द्रव्य रहते हैं, उसको लोक कहा जाता है। ध्यान रखना, छः द्रव्यों में मेरी आत्मा ही निज लोक है निश्चय से 'राजवार्तिक' ग्रन्थ में आचार्य अकलंक देव लिखते हैं । लोक में द्रव्य व्यवस्थित हैं । लोक में द्रव्य प्रतिष्ठित ही हैं, ऐसा सर्वदा सत्य नहीं है। लोक में ही प्रतिष्ठित हो जायेंगे द्रव्य, तो अनवस्था का प्रश्न उठेगा। लोक वातवलयों में हैं, तो वातवलय आकाश में हैं, आकाश स्वप्रतिष्ठित है। ये जो 'स्वप्रतिष्ठित' शब्द है, यदि इसकी सत्ता जिनआगम से निकाल दें, तो अनवस्था दोष आ जायेगा ।
आचार्य अकलंकदेव कह रहे हैं कि व्यवहार से लोक में द्रव्य हैं, निश्चय से स्वयं में ही स्वद्रव्य है । प्रत्येक द्रव्य स्वचतुष्टय की अपेक्षा से स्वचतुष्टय में ही है। पर, परभाव अधिकरण की अपेक्षा से लोक में है। आप कहाँ विराजते हो, ढाई द्वीप में, मध्यलोक में, भारत देश, मध्यप्रदेश में, जबलपुर नगरी में, बोर्डिंग मंदिर में, कि एक हाल में, कि प्रवचन भवन में, कि तीन फुट में, कि साढ़े तीन हाथ के शरीर में ? शरीर में कहाँ हो, मैं तो स्वयं में हूँ । यही स्वप्रतिष्ठित दशा ही निज स्वभाव है। बाहर में कहीं भी रह लो, परन्तु ध्रुवसत्य यह है कि तू जहाँ है, वहीं है । कहाँ हो ? स्वयं में । आँखों से नहीं दिखेगा, जो मैं यहाँ सुना रहा हूँ, जिसे आप सुन रहे हो, आँखों का विषय नहीं है । वह ज्ञान का, ज्ञानमय ही विषय है । अन्दर समझता है, अनुभव में आता है कि मैं कहाँ हूँ। जगत में रहकर जगत को अपना मान रखा है, परन्तु जगत मेरा कभी हुआ नहीं। मैं तो स्वयं का स्वयम्भू त्रैकालिक था, त्रैकाल रहूँगा; लेकिन मोह राजा के चक्कर में पड़कर तुम पर को अपना कह रहे हो ।
आत्मा तो आत्मा का विषय है। यह आँख बन्द करने या खोलने से नहीं दिखती। कुछ लोग कहते हैं कि आत्मा अनुभव में नहीं आती। अरे ज्ञानी ! जो जगत का अनुभव कराये, यदि वह न कर पाये, तो वह जीव कैसा ? जगत अनुभवकर्त्ता जो है, वही अनुभव करने योग्य है। उसके अनुभव के लिए न माला चाहिए, न वनिता चाहिए। जब तक वनिता के पीछे लगे रहोगे, तब तक निज वनिता का मिलन नहीं होगा। निज वनिता ही स्वानुभव है। उस वनिता पर लक्ष्य चलेगा चौथे गुणस्थान से, और उस वनिता से पूर्ण मिलन होगा सातवें गुणस्थान से । आज मुजफ्फर नगर से एक विद्वान् आये, कहा कि महाराज जी ! आप अपनी कलम से समयसार लिख दो, गुणस्थान क्रम से कथन हो जाये, तो जो ग्रन्थियों की गुत्थियाँ लगी हैं, वे सब सुलझ जायें। ध्रुव सत्य है, आचार्य कुन्दकुन्द देव को गुणस्थान कहने की आवश्यकता नहीं पड़ी थी, पर उन्होंने स्वानुभव से कथन किया। आपको विवेक लगाना चाहिए कि किस गुणस्थान का कथन कहाँ पर है ? ध्रुव सत्य क्या है, उस योगी को समझा रहे हैं, जो गुणस्थानों से स्वमण्डित था पहले से ही । वह कहते हैं, हम गुणस्थान के बरतन में नहीं डालना चाहते हैं, हम चिदानंद के बरतन में ले जाना चाहते हैं। बरतन और वर्तन में अन्तर ध्यान देना ।
हम आपको गुणस्थानों के पात्रों में नहीं रखना चाहते हैं । हम आपको निजानंद के बरतन में वर्तन कराना चाहते हैं । गुणस्थान न भी कहूँगा, तो जो गुणस्थान सुननेवाले होंगे, वे गुणस्थान में ही होंगे। जब
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