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समय देशना - हिन्दी ही चिंतन विकृत हुआ, कि शरीर की इन्द्रियों में विकार उत्पन्न हो गये, और जो विशुद्ध धारा बह रही थी, उस व्यक्ति का संयम डगमग होने लगा। जो प्रभु को निहार रहा था, उसने किसी रमणी को देखना प्रारंभ कर दिया । चिन्तन की धारा है। चित्त नहीं जाता, चिंतन जाता है। जैसा चिंतन बनेगा, वैसा चित्त बनेगा और जैसा चित्त बन गया, वैसा चारित्र होगा। इसलिए चिंतन पर जोर देना चाहिए । भारतीय तत्त्व मनीषा में चारित्र जीवन्त उन्हीं का रह पाया है, जिनके चिन्तन विशुद्ध रहे। जिनके चिन्तन विशुद्ध रहे, उनके चित्त विशुद्ध रहे । और जिनके चित्त विशुद्ध रहे, उनके चारित्र विशुद्ध रहे । सतत चिन्तन के लिए प्रेरित किया गया है। इसलिए जब तक निश्चय अध्यात्म में प्रवेश नहीं होता, तब तक चिन्तन के अध्यात्म से दूर मत हो जाना । अब पुनः कहना,
चिदानंद स्वरूपोऽहं, ब्रह्मानंद स्वरूपोऽहं । जब ब्रह्मानंद स्वरूप पर धारा जायेगी, तब कामादिक विकारों पर दृष्टि नहीं जायेगी और आँखों से जिस द्रव्य को अलग नहीं किया जाता, आत्मा से उस द्रव्य को अलग किया जाता है। आप वैद्य हैं। आँखों से तो आप त्रिफला को एकरूप देख रहे हो, और उसे चूर्ण बोलते हो। खानेवाला भी अज्ञानी एकरूप में देख ले, खरीदने वाला अज्ञानी भी एकरूप में देख ले, पर तूने बनाया है तो तुझे मालूम है कि एक-एक फल भिन्न है । हे ज्ञानी ! मिथ्यात्व को देखनेवाला भले एकरूप देखे, एकरूप जाने, पर मिथ्यात्व का अनुभव मैंने ही किया है, इसलिए आँखें तो एकरूप देख सकती हैं, पर आत्मा भिन्नरूप देखती है। मिथ्यात्व आत्मा नहीं है। त्रिफला, त्रि-फला है। जिसने बनाया, उसने खाया। उसे स्वाद एकरूप नहीं आता, भिन्न रूप आता है। आँवला, हर्र, बहेरा अलग-अलग है । ऐसे ही सम्यक्त्व सम्यक्त्व गुण है, ज्ञान ज्ञानगुण है, चारित्र चारित्रगुण है। तीनों गुण एक में तो हैं, परन्तु एक नहीं है । एकीभाव नहीं है । एकत्व में हैं। अन्य, अन्य है, अनन्य नहीं है, फिर भी अन्य ही है। सम्यक्त्व अन्य है, ज्ञान अन्य है, चारित्र अन्य है; पर अनन्य (अभिन्न) एक है। आत्मा अधिकरण एक है, आधेय तीन हैं। इसलिए ध्यान अवस्था में भी जब लीन होगा तो, एकीभूत होगा। फिर नहीं कहेगा कि नीबू भिन्न है, शक्कर भिन्न है, पानी भिन्न है। न शक्कर पीता है, न बूरा पीता है; वह शिकंजी पीता है। ऐसे ही जब ध्यान में लवलीन होता है, तो चारित्र को नहीं पीता, दर्शन को नहीं पीता, ज्ञान को नहीं पीता; यह तो स्वानुभव को पीता है। अनुभूति युगपत् लेता है, इसलिए उसे ही स्वसमय जानो
निज परमात्मा में जो चिद्रूप है, वह सम्यक् दर्शन है । जो रागादि रहित संवेदन है, जो निश्चय अनुभूति है, वह वीतराग चारित्र है। निश्चय रत्नत्रय से परिणत जो जीव-पदार्थ है, उसे ही आप स्वसमय जानो । यहाँ दर्शन, ज्ञान, चारित्र की अभेद दशा है। जहाँ वीतराग चारित्र होगा, वहाँ सम्यक् वीतराग ज्ञान ग्रहण करना। यहाँ पर वीतरागता से तात्पर्य है कि बीत गया है मिथ्यात्व का राग, तद्गुण स्थान संबंधी असंयम भी बीत गया है। इसलिए 'वीतराग' संज्ञा ग्रहण करना, लेकिन पूर्ण वीतरागता की बात करोगे, तो ग्यारहवें गुणस्थान से पूर्ण वीतरागता प्रारंभ होगी, क्योंकि वहाँ कषायों का पूर्ण उपशम है, और परिपूर्ण वीतरागता यदि प्रगट हुई है, उसका नाम है बारहवाँ गुणस्थान।
बारहवें गुणस्थान में प्रकट हुई वीतरागता कभी सरागता में बदलती नहीं है । अभेद रत्नत्रय की अनुभूति तभी होगी, जब अपने स्वसमय पर लक्ष्य जायेगा। पालने और करने के भाव हैं जब तक, उस समय
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