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समय देशना - हिन्दी में उसे पालने की ही अनुभूति होगी। एक समय में एक ही संवेदन होगा; क्योंकि आपने पहले ही तो सुना था कि जब आत्मा में हर्ष-विषाद पर्याय होगी, एक समय में एक ही होगी। इसलिए वर्तमान में जो पूर्वाचार्य की वाणी आपके पास विद्यमान है, यदि उसके अनुकूल आपकी प्रवृत्ति है, तो वैसा समझना । यदि इसके विपरीत किंचित भी आपकी धारा जा रही है, तो कितने ही शास्त्रों के ज्ञाता हो जाना, पर सम्यक्ज्ञानी नहीं हो । तो ज्ञानी ! पौद्गलिक कर्म में स्थित है जो १४८ कर्म प्रकृति है, उसमें स्थित वीतरागी भी है। उसमें स्थित होने का मतलब समझना, उनमें दृष्टि ले जाना। जितने योगी हैं, जितने स्वसमय में विराजते हैं, वे कर्म में स्थित ही हैं। जो स्वसमय के फल को प्राप्त कर चुके होते हैं, अशरीर भगवान् वे ही कर्म से दूर हैं। कर्मस्थित का अर्थ यहाँ ग्रहण करना, कि कर्म के विकारी भावों में निज को विकारी करना, स्त्री पुत्र आदि के सेवन की अनुभूति।
ज्ञानियो ! इधर निहारना जरा, देखो यह कितना अच्छा लग रहा है। देखो इसके चेहरे पर तेरी दृष्टि गई, तू सोच रहा था कि मैं तो समयसार को विराजमान किये हूँ, परन्तु तू पर समयी है, व्यभिचारी है, क्योंकि आपने ज्ञानगुण को दूसरे के चेहरे पर टेक दिया और आपने चक्षु इन्द्रिय से उसके चेहरे के पुद्गल परमाणु को भोग डाला, तू तो व्यभिचारी था। स्निग्ध पुद्गल स्कंध ग्रहण कर रहा था कि नहीं कर रहा था ? जब तू देख रहा था, तो अन्दर गुदगुदी छूट रही थी, देखने के बाद फिर से देख रहा था, भोग करके भोग रहा था, अब्रह्म में लीन था और ब्रह्मधर्म की बात कर रहा था। विश्वास रखना, सुसमय की स्थिति बड़ी विचित्र है। अभी तो अपने पुद्गल कर्मस्कन्ध में तू बंधरूप था, परन्तु परके कर्मस्कन्ध में तू भोगरूप में था, तो और बन्ध कर रहा था। तूने नारी को तन से ही नहीं भोगा, मन से ही नहीं भोगा, पाँचों इन्द्रियों से तूने स्पर्श कर डाला। और एक को नहीं, तूने जगत के कितने जीवों को मन में बसा डाला। फिर भी सोच रहा था कि मैं धर्मात्मा हूँ। समयसार का धर्मात्मा भी अभी कोटि-कोटि दूर बैठा है। अभी पूजन-पाठ वाले धर्मात्मा थे, पिच्छि-कमण्डलु वाले धर्मात्मा थे। स्व में स्थिति वाले धर्मात्मा जिस दिन होंगे न, उस दिन यह आँख नाक पर ही रह पायेगी, उस दिन दूसरे की आँख पर आँख नहीं जायेगी। बिना राग के पलक ऊपर उठती ही नहीं है। आपने देखकर दृष्टि अलग की, वह भी तो राग था। दृष्टि डालने के बाद हटाई है, इसका मतलब तेरा मन कह रहा था कि अच्छा नहीं देखा । साम्यभाव नहीं था तेरी दृष्टि में, मैं तो इतना बताना चाहता हूँ आपको। वीतरागी स्वसमयी का योगी बनने के लिए आपको जगत से आँख बन्द करना पड़ेगी। यह समयसार का योगी बनने की बात कर रहे हो न, तो मैं जिनवाणी को भी कहूँ कि जीवों को व्यवहार जिनवाणी का ज्ञान नहीं होता है, तब भी कहोगे कि ऐसा कैसे ? तब लगता है कि इन्हें सत्य जिनवाणी का भी ज्ञान नहीं है। भोजन कर रहा था , आप ग्रास मुख में रख ही रहे थे, अचानक भैय्या जी दिख गये आपको, आपने कहा- आओ, भैय्या ! भोजन कर लो। बताओ, धर्म किया, कि अधर्म किया ? हे ज्ञानी ! भोजन करते समय मौन होना चाहिए था, धर्म था, परन्तु आप बोलने लगे, तो श्रुत का अविनय कर दिया। जूठे मुख से कहा 'भैया ! आओ, भोजन कर लो', तो राग के वशीभूत होकर जिनवाणी का अविनय कर बैठा । यदि नहीं कहता, 'आओ, भैय्या ! भोजन कर लो', तो अतिथि संविभाग नाम का व्रत कहाँ गया? अब बोलो क्या करोगे? यदि आप कहोगे कि बोलना ही पड़ता है, तो मुनिराज को भी बोलना चाहिए। इसलिए ध्यान दो, बड़ा गंभीर विषय है। मैं तो एक बार चर्या करके आ गया। आप आये, मैंने पूछ लिया कि भोजन हो गये ? तो मेरे महाव्रत में दोष लग गया। और यदि हम नहीं पूछे
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