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समय देशना - हिन्दी अखण्ड आकाश में ये आत्मा अखण्ड है। धर्म, अधर्म, काल आदि भी आत्मद्रव्य के साथ निवास कर रहे हैं , फिर भी आत्मा अपने चिद्रस्वरूप का परित्याग नहीं करता है । जो टंकोत्कीर्ण, चित्रस्वभाव जीवनाम का पदार्थ है, वही समय है। सभी द्रव्यों के मध्य रहकर भी सभी द्रव्य निज-द्रव्य नहीं हो जाते हैं और परद्रव्य कभी निज द्रव्य नहीं हो जाते हैं, निजद्रव्य कभी पर-द्रव्य नहीं हो जाता। यही तो द्रव्यजीव की असाधारण शक्ति है । एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप परिणमन नहीं करता, जैसे - ध्रुव सूत्र त्रैकालिक है । परिणमाने में सहकारी कारण तो हो सकता है, पर पररूप परिणमन नहीं करता है । ज्ञान ज्ञेय को जानता तो है, परन्तु जैसे तन्मयीभूत होकर स्वयं को प्रमाता है स्वयं की प्रमिति से, वैसे अन्य द्रव्य को तन्मयभूत होकर नहीं जानता। इसलिए ध्यान दो, जितनी मेहनत पुद्गल की परिणति में लगा रहे हैं, उतनी चेतन में लगाते तो भगवान् बन गये होते। कुछ जीव शाब्दिक पुद्गलों में चिपके हैं, कुछ जीव समयसारभूत के शब्दों के पुदगल में चिपके हैं। पर रत्नत्रय से मण्डित समयसारभूत आत्मा से जो चिपक जायेगा, उसे समयसार के कागजों में चिपकने की आवश्यकता नहीं है। रहना एकान्त में है और एकान्तदृष्टि को दूर करना है।
"आत्मस्वभावं परभाव भिन्नं ।" आत्मा का स्वभाव परभावों से भिन्न है, वही स्वसमय है। जो समय को एकत्व से युगपत् जानता है, यही केवली भगवान् का समयसार है । जानना, देखना एकसाथ होता है, वही समयसार है। हे मुमुक्षु ! ध्यान दो। शब्द में नहीं डूबना, अब स्वभाव पर दृष्टिपात करो । तू क्यों नहीं स्वसमय को भज पाया, क्यों नहीं स्वसमय को प्राप्त कर पाया ? क्योंकि अनादि अविद्या कंदली के मूलकन्द है, जड़ है, वह मोह है। कभी तूने रमणी में राग किया, तो कभी रमणी के राग से हटने का राग किया। पर राग बराबर किया। एक ने रमणी में रमने का राग किया, दूसरे ने रमणी से हटने का राग किया, तीसरे ने 'समय' शब्द के रंग में रमने में राग किया। तीनों ही रागी मोहपंक में फस कर निज रमणी को भूल कर परसमय में लीन हो गये। 'समयसार' शब्द का राग भी परसमय ही है, क्योंकि समयसार तो अवक्तव्य है।
अरसमरूवमगंधं अव्क्तं चेदणागुणमसद ।
जाण अलिंग्गहणं जीवमणिहिट्ठसंठाणं ॥४६ नि.सा.॥ ये समयसार है। अनुभूति अवक्तव्य है । मैं समयसारी, ये व्यवहारी ये विवाद ही तुझे परसमय में डुबाये है। समयसार को जाननेवाला तो मध्यस्थ होकर जीता है। 'पज्जय मूढ़ा परसमया' । कोई शब्दों की पर्याय में लिप्त हो रहा है, कोई पोथियों की पर्याय में लिप्त हो रहा है। हे ज्ञानियो ! न पोथी काम में आयेगी, न शब्द काम में आयेंगे । भगवान्-आत्मा शब्दातीत है। यही स्वसमय है। जहाँ परद्रव्य का प्रत्यय आता है, परद्रव्य का सहकारी कारण आता है, वहाँ मोह रागादि में भाव आते हैं। जब मोहरागादि भाव से वर्तन करता है, तब पुद्गल प्रदेश में स्थित होकर परम एकत्व भाव को जानता हुआ परसमय की प्रतीति लेता है।
॥ भगवान महावीर स्वामी की जय ॥
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एयत्तणिच्छयगओ समओ सव्वत्थ सुन्दरो लोए।
बंधकहा एयत्ते तेण विसंवादिणी होई ॥ ३ स.सा.॥ पर्याय व्यतिरेकी या क्रमवर्ती होती है, जैसे आत्मा में हर्ष और विषाद। ध्यान दो, यह तो स्थूल विषय है। यह समझ में नहीं आया, तो यह विडम्बना है कि सूक्ष्म कैसे समझेगा ? जिसे आज तक पर्याय समझ में
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